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________________ २३६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मुनि श्री सुमनमुनिजी आपका जन्म बीकानेर के नोखामण्डी परगना के अन्तर्गत पांचुं ग्राम में वि०सं० १९९२ माघ शुक्ला पंचमी (वसंतपंचमी) को हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती वीरांदे और पिता का नाम श्री भीवराजजी चौधरी था। आप जाति से जाट और गोदारा वंश के हैं। बाल्यकाल में ही माता-पिता का साया आपके सिर से उठ गया। आपने जैनधर्म की प्रारम्भिक शिक्षा यति श्री बुधमलजी से ग्रहण की। कल्पसूत्र का हिन्दी अनुवाद भी उन्हीं से अध्ययन किया। कॅवलगच्छीय उपाश्रय की कक्षाएँ पास करने के उपरान्त आपने श्री लक्ष्मीनारायणजी शास्त्री से हिन्दी व्याकरण और संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। वि०सं० २००७ आश्विन शुक्ला त्रयोदशी दिन सोमवार को लवाजमा में आप दीक्षित हुये और श्री महेन्द्रकुमारजी के शिष्य घोषित हुए। दीक्षा से पूर्व आपने श्री ज्ञानमुनिजी और श्री अमरमुनिजी के दर्शन किये थे । दीक्षोपरान्त आप गिरधारी से मुनि सुमनजी हो गये। आर्हती दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पं० श्री विद्यानन्दजी शास्त्री से 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का अध्ययन किया। आपका पहला चातुर्मास सिंहपोल (जोधपुर) में सम्पन्न हुआ। सन् १९५२ के चातुर्मास में गुरुदेव श्री महेन्द्रकुमारजी के सानिध्य में आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आपने 'तत्त्वचिन्तामणि', भाग-१ से ३ का लेखन/सम्पादन तथा 'श्रावक सज्झाय' की एक पत्रावली के आधार पर 'श्रावक कर्तव्य' नामक पुस्तक का लेखन कार्य किया है। इसके अतिरिक्त भी आपकी कई रचनायें मिलती हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हैं, जैसेशुक्ल प्रवचन भाग,१-४, पंजाब श्रमण संघ गौरव (आचार्य अमरसिंहजी म०), अनोखा तपस्वी (श्री गैंडेरायजी म०), बृहदालोयणा (विवेचन), देवाधिदेव रचना (विवेचन), शुक्ल ज्योति, शुक्ल स्मृति वैराग्य इक्कीसी, आत्मसिद्धिशास्त्र और सम्यक्त्व पराक्रम। आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा विभिन्न पदवियों से विभूषित होते रहे हैं- सन् १९६३ में श्री एस०एस० जैन सभा, रायकोट, में 'निर्भीक वक्ता, श्री रतनमुनिजी द्वारा सन् १९८३ में 'इतिहास केसरी', सन् १९८५ में श्री एस०एस० जैन सभा, फरीदकोट द्वारा 'प्रवचन दिवाकर', सन् १९८७ में 'श्रमण संघीय सलाहकार', १९८७ में पूना श्रमण संघ सम्मेलन में 'शान्तिरक्षक', सन् १९८८ में श्रमण संघीय मंत्री', सन् १९९८ में बैंगलोर में श्री पदमचन्दजी द्वारा 'उत्तर भारत प्रवर्तक' आदि पदों से विभूषित हुये। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि आपके प्रमुख विहार स्थल रहे हैं। आपके तीन शिष्य श्री सुमन्तभद्रमुनिजी, श्री गुणभद्रमुनिजी व श्री लाभचन्द्रमुनिजी तथा एक प्रशिष्य - श्री प्रवीणमुनिजी हैं। आपके चातुर्मास स्थल निम्न रहे हैं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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