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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा आचार्य श्री अमरसिंहजी स्थानकवासी पंजाब सम्प्रदाय में आचार्य श्री अमरसिंहजी एक गौरवशाली और महिमामण्डित आचार्य थे। इस संघ में कई तेजस्वी आचार्य हुए, किन्तु यह संघ आपके नाम से ही जाना जाता है। तेजस्वी प्रतिभा के धनी श्री अमरसिंहजी का जन्म वि०सं० १८६२ वैशाख कृष्णा द्वितीया को अमृतसर में हुआ । आपके पिता का नाम लाला बुधसिंह तातेड़ तथा माता का नाम श्रीमती कर्मो देवी था । १६ वर्ष की अवस्था में आपका पाणिग्रहण संस्कार सुश्री ज्वालादेवी के साथ हुआ । आपके यहाँ दो पुत्री और तीन पुत्रों ने जन्म लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश आपके तीनों पुत्रों ने आँखे मूँद ली । आँखों के सामने तीनों पुत्रों के काल की गाल में समा जाने से आपके मन में वैराग्य की भावना प्रस्फुटित हुई । वैराग्य की चादर को ओढे हुए आप दिल्ली में विराजित श्रद्धेय श्री रामलालजी के सान्निध्य में आए। वहीं पर वि०सं० १८९९ वैशाख शुक्ला द्वितीया के दिन आप दीक्षित हुए । तीक्ष्ण बुद्धि होने से आपने अल्प समय में ही आगम ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर लिया। वि० सं० १९१३ वैशाख कृष्णा द्वितीया की पावन बेला में दिल्ली में आप आचार्य पद पर आसीन हुए । ३९ वर्षों तक आपने जिनशासन की अखण्ड ज्योति जलायी । पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि आपके विचरण क्षेत्र रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि आपने सात लाख लोगों को मांस, मदीरा आदि के सेवन से वंचित किया था। आपने अपने श्रमण जीवन में बारह व्यक्तियों को जिन दीक्षा प्रदान की। आप द्वारा दीक्षित व्यक्तियों की नामावली इस प्रकार है १९९ श्री मुश्ताकरायजी, श्री गुलाबरायजी, श्री विलासरायजी, श्री रामबख्शजी, श्री सुखदेवरामजी, श्री मोतीरामजी, श्री सोहनलालजी, श्री खेतारामजी, श्री रत्नचन्दजी, श्री खूबचन्दजी, श्री बालकरामजी और श्री राधाकृष्णजी। जिनशासन की प्रभावना करते हुए ७६ वर्ष की आयु में वि०सं० १९३८ आषाढ़ शुक्ला द्वितीया को आपका स्वर्गवास हो गया । आचार्य श्री रामबख्शजी Jain Education International स्थानकवासी पंजाब परम्परा में आचार्य श्री अमरसिंहजी के पश्चात् मुनि श्री रामबख्शजी आचार्य पट्ट पर बैठे। श्री रामबख्शजी का जन्म राजस्थान के अलवर नगर में वि०सं० १८८३ आश्विन पूर्णिमा को हुआ । आपके माता-पिता का नाम उपलब्ध नहीं होता है। आप जाति से लोढ़ा गोत्रीय ओसवाल थे। ऐसा कहा जाता है कि माता-पिता के आग्रह पर आपने विवाह किया, किन्तु नवविवाहिता पत्नी को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की धारणा दिला दी। फलतः आप दोनों ने जयपुर में विराजित आचार्य श्री अमरसिंहजी के सान्निध्य में वि० सं० १९०८ में जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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