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________________ १३८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास ५२. इस बोल में लोकाशाह ने लिखा है कि 'भगवती' के अट्ठारहवें शतक के सातवें उद्देशक में केवली किस प्रकार की भाषा बोलते हैं, इसका विवरण दिया गया है। उसमें कहा गया है कि केवली न तो यक्ष आदि के आदेश से बोलते हैं और न वे नशे में उन्मत्त होकर बोलते हैं और न सत्य-मृषा भाषा बोलते हैं । केवली सदा ही असावद्य, परोपघात से रहित सत्य या असत्य-अमृषा भाषा ही बोलते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि केवली का उपदेश निरवद्य होता है, वे प्रतिमा, प्रासाद, पूजा आदि पापकारी उपदेश नहीं दे सकते हैं। ५३. इसमें लोकाशाह लिखते हैं कि 'भगवती' के बीसवें शतक के आठवें उद्देशक में तीर्थ किसे कहते हैं इसका विवरण दिया गया है और वहाँ यही कहा गया है कि श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका - यही चतुर्विध तीर्थ हैं । इसी प्रकार 'भगवती' के पच्चीसवें शतक के सातवें उद्देशक में धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं - वाचना, पृच्छना, परावर्तन और धर्मकथा। पुन: 'भगवती' के अट्ठारहवें शतक के दसवें उद्देशक में यात्रा क्या है? इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, आवश्यक, समाधि आदि ही यात्रा है। इसी प्रकार 'ज्ञाताधर्मकथा' के पाँचवें अध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम और यतना को ही यात्रा कहा गया है। इस सब का तात्पर्य यह है कि आगमों में शत्रुजय आदि पर्वतों को तीर्थ नहीं कहा गया है। इसी प्रकार धर्मध्यान के आलम्बन के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए भी प्रतिमा आदि को उसका आलम्बन नहीं माना गया है। यात्रा के सन्दर्भ में भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को ही यात्रा कहा गया है, न कि तीर्थ यात्रा को यात्रा कहा गया है । (इससे यह फलित होता है कि लोकाशाह तीर्थ और तीर्थ-यात्रा के समर्थक नहीं थे।) ५४. इस बोल में लोकाशाह कहते हैं कि आगमों में फूलों को सजीव माना गया है । न केवल इतना ही अपितु आगमों में पुष्प के विभिन्न भागों में कैसे और कितने - कितने जीव होते हैं, इसकी भी चर्चा है । साथ ही, पुष्प के कुछ स्थानों पर तो अनन्त जीव माने गये हैं। अत: सजीव द्रव्य से जिनेन्द्रदेव की पूजा पापमय प्रवृत्ति ही है। ५५. लोकाशाह लिखते हैं कि 'ज्ञाताधर्मकथा' के पाँचवें अध्ययन में थावच्चापुत्र और सुदर्शन का संवाद है। इसमें सुदर्शन शौचमूलक धर्म के प्रतिपादक हैं । उन्हें समझाते हुए थावच्चापुत्र कहते हैं कि जिस प्रकार रुधिर से सना हुआ वस्त्र रुधिर से नहीं धुलता उसी प्रकार जीव हिंसादि से शुचिता को प्राप्त नहीं हो सकता । प्रकारान्तर से यही बात 'ज्ञाताधर्मकथा' के ८ वें अध्ययन में भगवती मल्ली और चोरवा परिव्राजिका के प्रसंग में भी कहीं गयी है अर्थात् जिस कार्य में हिंसा होती है वह धर्म नहीं होता है। ५६. इस बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि आगम ग्रन्थों में अनेकों स्थानों पर यक्षों के यक्षायतनों का उल्लेख है । 'औपपातिक', 'भगवती', 'ज्ञाताधर्मकथा', 'विपाकसूत्र' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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