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________________ लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति १२३ यदि ऐसा तीन बार करने पर वासना उपशान्त न हो तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त देवें । ऐसे चौथे व्रत के अपवाद चूर्णि में कहे गये हैं। जिसको अपने परलोक का भी कोई भय होगा वह ऐसी सूत्र विरुद्ध बात को कैसे स्वीकार करेगा? ऐसे अनाचरणीय कार्य के करनेवाले के लिये मात्र चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान इस पर विवेकवान विचार करें । २४. 'निशीथ' के १०वें उद्देशक में अनन्तकाय का भक्षण निषिद्ध कहा गया है और उसी की चूर्णि में विशेष कारण पड़ने पर उसके भक्षण का समर्थन किया गया है। अकाल आदि की अवस्था में जब अचित्त अथवा मिश्र आहार भी न मिले तो परित्तकाय संमिश्र आहार ग्रहण करना चाहिए। यदि वह भी न मिले और मिश्र भी न मिले तो अनन्तकाय मिश्र का ग्रहण करना चाहिए । यहाँ अनन्तकाय को खाने के लिए कहा गया है। विवेकीजन इस पर विचार करें। २५. 'निशीथ' के १२वें उद्देशक में सचित्त वृक्ष आदि पर चढ़ने का निषेध किया गया है, किन्तु उसी की चूर्णि में ग्लान की औषधि के लिए, मार्ग से फिसलते समय, फल के लिए, मार्ग के दुरूह होने पर, पानी में गिरने से बचने के लिए, उपधि अथवा शरीर आदि को चोट लगने के भय से, पशुओं के भय से आदि परिस्थितियों में सचित्त वृक्ष पर चढ़ने आदि का समर्थन किया गया है । ऐसा कहा गया है-यदि अचित्त वृक्ष व हो तो मिश्र वृक्ष पर चढ़े, यदि मिश्र न हो तो परित्त सचित्त पर चढ़े, यदि वह भी न हो तो अनन्तकाय युक्त सचित्त वृक्ष पर चढ़े। इस प्रकार कारणवश यतनांपूर्वक वृक्ष पर चढ़ने में दोष नहीं है । इस प्रकार के उल्लेखों से युक्त 'निशीथचूर्णि' को कैसे प्रमाण माना जा सकता है? २६. 'उत्तराध्ययन' के छठे अध्याय की वृत्ति में संयमी मुनि चक्रवर्ती के कटक अर्थात् सेना को चूर्ण करे यह अधिकार लिखा हुआ है। वह मुनि जिसको देवेन्द्रलब्धि या पुलाकऋद्धि की प्राप्ति हो वह संघ आदि के कार्य के लिए चक्रवर्ती के कटक को चूर्ण कर सकता है। विवेकीजन विचार करें? । २७. 'व्यवहारसूत्र' के प्रथम उद्देशक के परिहारकप्पट्टिते भिक्खु की वृत्ति में नलदाम कौली की कथा दी गयी है। इस कथा का कथ्य यह है कि परिस्थितिवश व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा करते हुए भी शुद्ध होता है । जहाँ सिद्धान्त में एक ओर यह लिखा हुआ है कि जो राजा को मारता है, वह महा-मोहनीयकर्म का बन्ध करता है, किन्तु इसके विरुद्ध वृत्ति में यह कहा गया है कि जो कारणवशात् परिवार सहित राजा को मारता है वह भी शुद्ध होता है और अल्पकाल में मुक्त हो जाता है । इस पर विज्ञजन विचार करें? २८. 'आवश्यकनियुक्ति' में प्रतिस्थापना समिति की चर्चा में कहा गया है कि यदि यति को आवश्यकता या शीघ्रता हो तो वह अदत्त सचित्त पृथ्वी को भी ग्रहण कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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