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________________ विशेषावश्यकभाष्य में गणधरवाद व निह्नववाद का महत्व एवं स्थान 'गणधर' शब्द का अर्थ है - लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण को धारण करने वाले तथा तीर्थंकर के प्रवचन को सर्वप्रथम सूत्र रूप में संकलित करने वाले महापुरुष।' तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थंकर) द्वारा प्ररुपित तत्त्वज्ञान का द्वादशांगी रूप में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गण के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं, वे गणधर कहे जाते हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में भाव-प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान गुण के आगम नामक प्रमाण-भेद में बताया गया है कि गणधरों के सूत्र आत्मगम्य होते हैं। दूसरे शब्दों में वे सूत्रों के कर्ता हैं। गणधरवाद - इन्द्रभूति गौतम आदि उन 11 वैदिक विद्वानों के संशय समाधानों का वस्तुनिष्ठ संकलन है, जो सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर के पट्ट शिष्य बनने अर्थात गणधरपद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व प्रचण्ड वादी के रूप में अपने प्रकाण्ड पांडित्य प्रदर्शन एवं भगवान की सर्वज्ञता का परीक्षण किं वा पराजित करने की असीम आकांक्षा से उनके समवशरण में उपस्थित हुए थे। ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त 24 तीर्थंकर हैं। प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में गणधर हुए पर उनकी संख्या अलग-अलग है। किन्तु तीर्थंकर भगवान महावीर के 9 गण और ग्यारह गणधर थे जिनका नामोल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। गणधरवाद का महत्व भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे। ये सभी अपने समय के वैदिक परम्परा के प्रकाण्ड विद्वान थे तथा अपने अपूर्व ज्ञान के अहं से मण्डित थे अर्थात् ज्ञान के अहं से ग्रथित थे। ये सभी किसी न किसी एक विषय के संशय से ग्रसित थे, शंकाग्रस्त विषयों का वे कोई समाधान नहीं खोज पाये थे। जिस समय ये ग्यारहों विद्वान अपनी-अपनी विपुल शिष्य-सम्पदा के साथ मध्यमपावा में आर्य सोमिल द्वारा आयोजित एक विराट यज्ञ के लिए अन्य विद्वानों के साथ उपस्थित थे, उसी समय भगवान प्रभु महावीर का आगमन वहाँ हुआ। देवताओं द्वारा एक ' भगवान महावीर एक अनुशीलन, आचार्य देवेन्द्रमुनि, प्र. परिशिष्ट 7 2 मिला प्रकाश खिला बसन्त, आ. जयन्तसेनसूरि, पृ. 1-5 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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