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इस कारण पुण्य और पाप को बन्ध में भी अतभाव कर सकते हैं, क्योंकि कर्म का आगमन आस्रव है और उनका संसारी जीवों के साथ मिल जाना, बन्ध है। जैसे कि - शुभ कर्म के आगमन को/उपार्जन को पुण्य कहा जाता है, उसका आम्रव में समावेश होता है, उन शुभ कर्मों का जीव के साथ सबन्ध होने पर पुण्य बन्ध के रुप में समावेश कर सकते है।
तत्वार्थधिगम की सिद्धसेन गणिकृत टीका में उल्लेख है "पुण्यपापयोश्च बन्धेऽन्तर्भावात् अर्थात् पुण्य तथा पाप का बन्ध में अर्तभाव होता है।
तत्वार्थ राजवार्तिक में भी कहा है -- "पुण्यपापपदार्थोपसंङ्वानमिति चेत् न आस्रवे बन्धे वाऽन्तभावात्।
जो परम्परा पुण्य-पाप को स्वतंत्र तत्व नहीं मानती है, वह इन्हें आस्रव के अन्तर्गत समाविष्ट कर लेती है। अगर सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो पुण्य और पाप केवल शुभाशुभ आसव रूप ही नहीं है, अपितु शुभाशुभ कर्मबन्ध में तथा शुभाशुभ कर्मफल के रूप में भी स्वीकार किया गया है। आस्रव की तरह बन्ध और विपाक के भी शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो भेद करने होंगे। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहते हैं कि - पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल हैं।'
___ आचार्य कुन्दकुन्द, पुण्य-पाप दोनों को बन्धन का कारण मानते हैं। समयसार में बताया है कि - अशुभ कर्म पाप (कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, फिर भी पुण्य कर्म संसार (बन्धन) का कारण है, जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण हैं।
___ आचार्यों ने पुण्य-पाप को द्रव्य और भावरूप से दो दो प्रकार के बताए हैं -- 1. शुभ कर्म पुद्गल रुप द्रव्य पुण्य तथा 2. अशुभ कर्म पुद्गल रुप द्रव्य पाप। इसलिए द्रव्यरूप पुण्य तथा पाप बन्धतत्व में अन्तर्भूत है। आत्मा से कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध या आत्मा और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध विशेष ही द्रव्यबन्ध तत्त्व है। द्रव्यपुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय है, जो भावपुण्य है, और द्रव्य--पाप का कारण अशुभ अध्यवसाय है, जो
' इसिभासियाई सुत्तं, 9/2
समयसार, 145-146
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