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सप्तम अध्याय बन्धन और मुक्ति की समस्या और उसका समाधान
भारतीय दर्शन में बन्धन से मुक्ति को प्रमुख प्रत्यय के रूप में माना है। भारतीय चिन्तन के अनुसार, नैतिक जीवन की समग्र साधना बन्धन या दुख से मुक्ति के लिए है। इस प्रकार बन्धन नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन दर्शन की प्रमुख मान्यता है।
भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने जगत् की विचित्रता और आत्मा की परतन्त्रता को सहेतुक माना है। उस हेतु को वेदान्ती "अविद्या”, बौद्ध “वासना", सांख्य “क्लेश” और न्यायवैशेषिक “अदृष्ट” तथा जैन दर्शन में “कर्म' कहते हैं। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध है, समूचे लोक में फैले हुए हैं वे जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बन्ध जाते हैं, यह उनकी बध्यमान (बंध) अवस्था है। कर्म वर्गणा या कर्म परमाणु एक सूक्ष्म भौतिक तत्व है। इस सूक्ष्म भौतिक कर्म-द्रव्य (Karmic Matter) से आत्मा का सम्बन्धित होना ही बन्धन है। तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने कहा है “कषाय भाव के कारण जीव का कर्म पुद्गल से आक्रान्त हो जाना ही बन्ध है।" बन्धन आत्मा का अनात्म से, जड का चेतन से, देह का देही से संयोग है। यह संयोग ही दुःख है, क्योंकि समग्र दुःखों का कारण शरीर ही माना गया है। शरीर का तात्पर्य यहां पर सूक्ष्म शरीर से है, जो व्यक्ति के कर्म संस्कारों से बनता है। यह सूक्ष्म लिंग-शरीर या कर्म-शरीर ही प्राणियों के स्थूल शरीर का आधार एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण है। जन्म-मरण की इस परम्परा को ही भारतीय दर्शनों में दुःख या बन्धन माना गया है। उन दुःखों या बन्धनों से छुटकारा पाना 'मोक्ष' है।
मोक्ष भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। श्री अरविंद इसे भारतीय विचारधारा का 'महानशब्द' मानते है। मोक्ष और मुक्ति शब्द क्रमशः मोक्ष और 'मुच' धातु से व्युत्पन्न होते है, जिनका अर्थ है – “स्वतंत्र होना” या “छुटकारा पाना” अर्थात् जीवन मरण के चक्र से और परिणामस्वरुप सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होना है।
__ भारतीय दर्शन में चार पुरुषार्थ (मूल्य) माने गये है - अर्थ (आर्थिक मूल्य), काम (मानसिक मूल्य), धर्म (नैतिक मूल्य), और मोक्ष (आध्यात्मिक मूल्य) । इनमें से आर्थिक
सकषायात्वाज्जीव : कर्मणोयोग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः, तत्त्वार्थसूत्र 8/2
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