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तृतीय अध्याय गणधरवाद में कर्म की सत्ता की समस्या
कर्म की सत्ता को मानने का हेतु
कर्ग-सिद्धान्त भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है और जैन दर्शन का प्राण है। कर्म-सिद्धान्त माने बिना प्राणियों के अस्तित्व और व्यक्तित्व की, स्वभाव और विभाव की, उनकी प्रकृति और विकृति की, अतीत से लेकर अब तक की अच्छी, बुरी, उत्कृष्ट-निकृष्ट एवं उत्थान-पतन की सम्यक् व्याख्या नहीं हो सकती है। सभी भारतीय दर्शनों ने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है।
प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि या वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग, पशु-पक्षीरूप हो या मानव-देवरूप हो, तात्विक दृष्टि से सभी समान है। जब मूलरूप से सभी आत्माएं समान है, तब उनमें परस्पर वैषम्य क्यों? मुख्यतया इसी प्रश्न के उत्तर में कर्म सिद्धान्त का उद्भव और विकास हुआ।
सुख-दुःख एवं विभिन्न प्रकार की सांसारिक विचित्रताओं के कारणों की खोज करते हुए भारतीय विचारकों ने भी कर्म को स्वीकार किया। विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं ने कर्म को माया, अविद्या, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृश्य, संस्कार आदि के रूप में माना है फिर भी कर्म की अवधारणा का जितना सुस्पष्ट, सुव्यवस्थित एवं सुविकसित रूप जैन-दर्शन में उपलब्ध होता है। उतना क्रमबद्ध रूप अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।'
___ कर्म का अस्तित्व जगत् की विविधता व विचित्रता के कारण है। इन विभिन्नताओं के कारण ही धर्मशास्त्रों में 4 गतियां, और 84 लाख जीव-योनियां मानी गई हैं। एक ही जाति के प्राणियों में हजारों-लाखों भेद रेखाएं पाई जाती हैं। मनुष्य जाति में ही कोई क्रूर है तो कोई दयालु । कोई राग-द्वेष से लिप्त है, तो कोई वीतराग। शरीर, मन, बुद्धि, धन आदि की दृष्टि से भी मनुष्यों में असंख्य भिन्नताएं हैं। कोई शरीर से दुबला-पतला है तो कोई हट्टा-कट्टा और मोटा ताजा, कोई अल्पायु है तो कोई चिरायु। कोई दुःख की भट्टी में बुरी तरह तप रहा है तो दूसरा सुख चैन की बंशी बजा रहा है।'
आचार्य देवेन्द्रमुनि, कर्मविज्ञान भाग-1, पृ. 49, श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर। * कर्ममीमांसा, मुनि हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, पृ. 5, मधुकर मुनि
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