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________________ वज्जालग्ग १३. गाथाओं के रस, महिलाओं के विभ्रम, कवियों को उक्तियाँ और बालकों के अव्यक्त शब्द (तोतली बोलियाँ) किसका मन नहीं मोह लेते हैं ॥ ५॥ १४. सभी कविजन सभी गोष्ठियों में विश्वस्त होकर गाथाएँ पढ़ते हैं, परन्तु उनमें गूढार्थ (व्यंग्य-अर्थ) श्रेष्ठ विदग्ध जन ही जान' पाते हैं ॥ ६ ॥ १५. जब गवाँर लोग सीखने लगते हैं, तब बेचारो गाथा रो पड़ती है। वे वैसे ही उसे नोंच-खरोच डालते हैं, जैसे अनाड़ी दुहने वाला गाय. को ॥ ७॥ १६. गाथे ! गवाँरों के दृढ़ और कठोर दाँतों से पीड़ित होकर (अर्थात् मों के द्वारा उच्चरित होकर) तुम ईख के समान या तो भग्न हो जाओगो या लघु (निस्सार) हो जाओगी [ईख रस निकल जाने के कारण लघु (निस्सार) हो जाती है और गाथा अक्षर के अशुद्ध उच्चारण से लघु (छोटी) हो जाती है] ॥ ८॥ १७. जो गाथाओं, गीतों, तन्त्रीशब्दों (वाद्ययन्त्र के स्वर) और प्रौढ़ महिलाओं का रस नहीं जानते, उनके लिए यही दण्ड है कि वे आनन्द से वंचित रह जाते हैं ॥९॥ १८. छन्द (छन्द और इच्छा) न जानने वालों के द्वारा जो की जाती है, वह सुन्दर नहीं होती। क्या ? गाथा या सेवा अथवा गाथा और सेवा दोनों । (छन्द के ज्ञान के अभाव में गाथा और सेव्य की इच्छा के ज्ञान के अभाव से सेवा रमणीय नहीं होती है) ॥ १० ॥ १. शब्दार्थशासनज्ञानमात्रेणव न वेद्यते । वेद्यते स तु काव्यार्थतत्त्वज्ञैरेव केवलम् ।। -ध्वन्यालोक, कारिका ७ २. तंत्रीनाद कबित्त रस सरस राग रति रंग । अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग ॥ --बिहारी, २६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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