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________________ ४९६ . वज्जालग्ग सत्यं चैव पलाशोऽश्नाति पलं विरहिणां मधुमासे तृप्तिम् अवजन् ज्वलयतीव सुधया सर्वाङ्गम् --श्रीपटवर्धनसम्मत छाया संस्कृत-टीकाकार ने 'जल इ व्व' को 'जलमिव' समझकर व्याख्या की है : "किमिव । जलमिव । यथा क्षुधादीप्तसर्वाङ्गो जलात् तृप्ति न प्राप्नोति, तथा अयं मधुमासो विरहिणां पलम् अश्नन् सन् तृप्ति न जति ।" ___अर्थात् किसके समान ? जल के समान । जैसे क्षुधा से प्रदीप्त अंगों वाला व्यक्ति जल से तृप्त नहीं होता उसी प्रकार वसन्त वियोगियों का मांस खाता हुआ तृप्त नहीं होता है । पता नहीं उपर्युक्त अर्थ किस व्याकरण से समर्थित है। यदि 'अव्रजन्' को मधुमास का विशेषण मानते हैं तो 'क्षुधया (क्षुधायां वा) जलमिव तृप्तिम् अवजन् मधुमास' ----यह वाक्य बनेगा। परन्तु 'मधुमासे' की सप्तमी इसमें बाधक है । फिर इस वाक्य का कर्ता तो पलाश है, न कि मधुमास । अंग्रेजी अनुवाद यों है : "सचमुच वसन्त में पलाश विरहियों का मांस खा जाता है और पकाये हुये चूने के द्वारा उनका शरीर जलता रहता है । वह सन्तुष्ट नहीं होता है । उपर्युक्त अनुवाद में 'व' का कहीं उपयोग ही नहीं किया गया है। साथ ही चूने से (छुहा - सुधा = चूना ) सर्वांग को जलाना समझ में नहीं आता। मूल में 'जलइ' क्रिया है। उसका रूपान्तर 'ज्वलति' होगा, 'ज्वलयति' नहीं। अतः छाया में 'ज्वलति' होना चाहिये । गाथा का सोधा-सा अर्थ यह है-- सचमुच वसन्त में पलाश ( राक्षस और वृक्ष ) विरहियों का मांस खाता है और तृप्त न होने के कारण मानों उसका सर्वांग भूख से जलता रहता है ( तभी तो अंगार के समान रक्तवर्ण दिखाई देता है ) । ___ अथवा--सचमुच वसन्त में तृप्त न होता हुआ पलाश ( वृक्ष और राक्षस ) विरहियों का मांस खाता है । ( उसका ) सर्वांग मानों क्षुधा से जलता है । इस प्रकार अव्याख्यात एवं प्रमादवश अन्यथा व्याख्यात गाथाओं के अर्थोद्धार का कार्य पूर्ण हो गया और साथ हो सरस गाथाओं के सम्बन्ध में उठाई गई आपत्तियों और शंकाओं का मार्जन भी कर दिया गया। आशा है, सुधीजन मेरे इस प्रयास का सहृदयता और सहानुभूति के साथ मूल्यांकन करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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