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वज्जालग्ग
जोड़ने पर वन और घन् प्रत्यय जोड़ने पर वाह शब्द बनते हैं । दोनों समानार्थक हैं । वाह ( प्रवाह ) का प्रसिद्ध पर्याय पूर हैं । प्रहेलिकाकार ने अर्थ-भ्रम उत्पन्न करने के लिये पूर के स्थान पर वहन का प्रयोग किया है। इस प्रकार कर्णवहन का अर्थ है-कर्णपूर ( कर्णाभरण, कनफूल ) । कर्णवधन शब्द कर्ण की हत्या के अर्थ में है ।
संस्कृतटीका में 'दाणरसंखं' की छाया 'वानरसंख्यम्' दी गई है, जो अशुद्ध है । उसे वानरसंख्याम् होना चाहिए । इस शब्द का सीधा अर्थ है--वानरों की संख्या । परन्तु प्रहेलिका के मर्म तक पहुँचने के लिये अन्य अर्थ की भी पहचान आवश्यक है । इसके लिये प्रस्तुत पद की निम्नलिखित रीति से व्याख्या करनी होगी
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वानर का नाम
वाणरसंखं = वानरसंख्याम् = ( वानरस्य संख्यां संज्ञाम् ) अर्थात् वालिपुत्र अंगद ( रामायण का पात्र विशेष ) । अंगद एक हस्ताभरण का भी नाम है । इस पद में बहुब्रीहि मानकर भी हम यही अर्थ ले सकते हैं । वानरेषु संख्या गणना यस्यासौ वानरसंख्यः । वानरों में जिसकी गणना है अर्थात् वालिपुत्र अंगद । यह अर्थ अभिप्रेत होने पर छाया में 'वानरसंख्यम्' का निवेश करना पड़ेगा । प्रथम अर्थ में संख्या शब्द अर्थभ्रम उत्पन्न करने के लिये आख्या ( संज्ञा ) के अर्थ में प्रयुक्त ' है | अर्थानुरोध से संस्कृतछाया का पूर्वार्ध यों हो
जायगा -
कर्णेन कर्णवधन ( कर्णवहनं ) वानरसंख्या ( वानरसंख्यं ) च हस्तेन । प्रहेलिका का शाब्दिक अर्थ ऊपर दिया जा चुका है । निगूढ़ अर्थ इस प्रकार है
हे कृशोदरि ! तुम किसके लिये मस्तक पर ( कर्णपूर ) और हाथों में अगद धारण करती हो ? चित्रवल्लरी एक रचना विशेष का नाम है ।
चित्रवल्लरी, कानों में कर्णफूल उत्तर- पति के लिये ।
महिलायें इसके द्वारा मुखमण्डल
को अलंकृत कर सौन्दर्य वृद्धि करती थीं । मूल में वर्णकर शब्द ( वर्णं करोतीति वर्णकरः ) स्वरभक्ति के कारण 'वरणयर' रूप में परिणत हो गया है ।
१. सो च पुग्गलो
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सङ्घ गच्छति
"परिसुद्धा जीवो वेव - मिलिंद पञ्ह, पृ०
२२७, बंबई विश्वविद्यालय संस्करण यस्मि समये खीरं होति, नेव तस्मि समये दधीति सङ्कं गच्छति, न नवनीतं ति सङ्घ गच्छति, न सप्पीति सङ्कं गच्छति, न सप्पिमण्डो ति सङ्कं गच्छति,
खीरं खेव तस्मि समये सङ्कं गच्छति ।
-दीघनिकाय, पोट्टपादसुत्त
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