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________________ ४७२ वज्जालग्ग पोढगइंदाण (प्रौढ गजेन्द्राणाम् ) = १-प्रौढ गजराजों का। २-गजराजों के समान प्रौढ़ पुरुष (प्रौढा गजेन्द्रा इव ) ( प्रणय-पक्ष ) मयं ( मदम् ) = १-मत्तता २-वीयं (प्रणय-पक्ष) मदो रेतस्यहङ्कारे मद्ये हर्षे भदानयोः । कस्तूरिकायां क्षेब्ये च मदी कृषकवस्तुनि ।। -अनेकार्थसंग्रह, २०२३४ णम्मया ( नर्मदा )-१-नर्मदा नदी २- रति-के लि' प्रदान करने वाली सुन्दरी ( नर्म रतिकेलिं ददातीति नर्मदा ) गाथा का प्रथम अर्थ अंग्रेजी अनुवाद में दिया जा चुका है, द्वितीय अर्थ इस प्रकार है (कपोलादि पर ) दांतों से होने वाला क्षत, सम्पूर्ण लिंग का भग में प्रविष्ट हो जाना, ( कुचादि पर ) हाथ चलाने से उत्पन्न आयास और गजराजों के समान प्रौढ पुरुषों का वीर्य (या रमणोन्माद )-यह सब तो केलि प्रदान करने वाली सुन्दरी ( नर्मदा ) सह लेती है । १९९४४-सरला मुहे न जीहा थोवो हत्थो मउब्भडा दिट्ठी । रे रयणकोडिगव्विर गइंद न हु सेवणिज्जो सि ।। ७॥ सरला मुखे न जिह्वा स्तोको हस्तो मदोद्भटा दृष्टिः रे रत्नकोटिगविन् गजेन्द्र न खलु सेवनीयोऽसि -संस्कृतटीका स्वीकृत छाया श्रीपटवर्धन ने 'थोव' को 'ठोर' माना है और 'रयणकोडिगव्विर' का अर्थ 'रदन कोटिगविन्' किया है । अंग्रेजी अनुवाद यों है "तुम्हारे मुंह में सीधी जिह्वा नहीं है ( मुड़ी है ), तुम्हारा सूड विशाल है ( या मोटा है ), तुम्हारी दृष्टि मद से भयानक है, हे गजराज ! तुम अपने दाँतों के तीक्ष्णान पर गर्व करते हो, इन दोषों के कारण तुम सेवनीय नहीं हो।" १. गीतगोविन्द, १२१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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