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वज्जालग्ग
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इस प्राकृतान्वय-वाक्य को संस्कृत में रूपान्तरित कर देने पर लिंग-विपर्यय की आवश्यकता बिल्कुल नहीं रहेगी
अवधूतालक्षणधूसराः पुरुषरूक्षाः शिशिरवानलतिकाः दीनपुरुषा इव अलक्षणाः दृश्यन्ते ।
इस प्रकार लतिका के सभी विशेषण दीनपुरुष के साथ निधि-रूप से अन्वित हो जायेंगे। शब्दार्थ-अवधूय अलक्खणधूसराउ = १. अवधूतालक्षणधूसराः ( लता-पक्ष )
२. अवधूतकलक्षणधूसराः ( दीनपुरुष ) लता-पक्ष में अवधूत का अर्थ है-प्रकम्पित और अलक्षण का अर्थ है-स्वरूपरहितत्व अर्थात् अपने वास्तविक रूप ( लक्षण ) में न दिखाई देना । दीनपुरुष के पक्ष में अवधूतक ( अवधूत+क) शब्द हो जायगा, जिसका अर्थ है-साधु विशेष ।' अवधूतक लक्षण का अर्थ है-अवधूतों के लक्षण वाला ।
अलक्खणा = अलक्षणा = श्रीहीन गाथार्थ-देखो, प्रकम्पित, स्वरूपशून्य, धूसर, परुष और रूक्ष हो जाने वाली शिशिर शोषित लतिकायें, इस प्रकार श्रीहीन दिखाई देती हैं जैसे-शिशिर वात गृहीत ( जाड़े की हवा से पीडित ) दरिद्र पुरुष कम्पित, स्वरूपशून्य, धूसर, परुप और रूक्ष होकर श्रोहीन दिखाई देते हैं ( अथवा जैसे दरिद्र पुरुष अवधूतों के समान धूल-भरे, परुष, रूक्ष और श्रीहीन दिखाई देते हैं )।
गाथा क्रमांक ६६२ संकुइयकंपिरंगो ससंकिरो दिनसयलपयमग्गो। पलियाण लज्जमाणो न गणेइ अइत्तए दिन्नं ॥ ६६२ ।। संकुचित कम्पनशीलाङ्गः शङ्कनशीलो दत्त सकलपदमार्गः पलितेभ्यो लज्जमानो न गणयति अतीते दत्तम्
-श्रीपटवर्धन-स्वीकृत संस्कृत छाया रत्तदेव की संस्कृत छाया में चतुर्थचरण का पाठ इस प्रकार है
न गणयत्ययि त्वया दत्तम् । २
१. देखिये, श्रीमद्भागवत पंचम स्कन्ध २. मुझे यही छाया मान्य है ।
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