________________
( xxv.)
असंलक्ष्य-क्रम ध्वनि कहा गया है । उसके अनेक उदाहरण पहले दिये जा चुके हैं। संचारी भावों के भी कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं
सेयच्छलेण पेच्छह तणुए अंगंमि से अमायंतं । लावण्णं ओसरइ व्व तिवलिसोवाणपंतीए ॥
-औत्सुक्य पत्ते पियपाहणए मंगलवलयाई विक्किणंतीए। दुग्गयधरिणी-कुलवालियाइ रोवाविवो गामो ।।
-दैन्य उन्भेउ अंगुलिं सा विलया जा मह पई न कामेइ । सो को वि जंपउ जुवा जस्स मए पेसिया दिछी ।।
-गर्व छिन्नं पुणो वि छिज्जउ महमहचक्केण राहणो सीसं । गिलिओ जेण विमुक्को असईणं दूसओ चन्दो ॥
-अमर्ष संभरिऊण य रुण्णं तोइ तुमं तह विमुक्कपुक्कारं । निद्दय जह सुहियस्स वि जणस्स ओ निवडिओ बाहो ॥
-विषाद निम्नलिखित गाथा में प्रतिकूल संचारी भाव का उन्मेष रसापकर्षक
है
नइ पूर सच्छहे जोव्वणंमि दिअहेसु निच्चपहिएसु ।
अणियत्तासु वि राईसु पुत्ति किं दड्ढमाणे ण ॥ यहाँ श्रृंगार विरोधी विभाव योवन की चंचलता, दिन को गतिमत्ता और रातों की अनिवर्तनशीलता के द्वारा जगत् की अनित्यता का प्रतिपादन होने से निर्वेद की उपस्थिति हो जाती है ।
वज्जालग्ग में भावों का तारल्य अलंकारों के रसानुगुण विनिवेश के कारण और भी बढ़ गया है। विविध वज्जाओं में यमक (गा० १८८) रूपक (गा० १९) उत्प्रेक्षा (गा० ३१४, ३२२, ३१३) विभावना (गा० ३९, बाला श्लोक ४) विशेषोक्ति (गा० १५२, ४६४) विषम (गा० ८२, ६३९, ३००४५) कायलिंग (गा० १७७, ३२१) अतिशयोक्ति (गा० ५५४) अत्युक्ति (गा० ४३४) उत्तर (गा० २१३, ४९४) विरोधाभास (गा० ३३, ५६१) अन्योन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org