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________________ वज्जालग्ग और 'षडशीतिः' में निहित तर्क-शृङ्खला नहीं जोड़ सके है। दोनों टीकाकारों ने 'सयरय' को औषध विशेष बताया है परन्तु वह औषध विशेष क्या है इसका पता नहीं है । अतः मैं उक्त अर्थ की अपेक्षा न करके अन्य व्याख्या दे रहा हूँ-- सयरयेण = १. शयस्य हस्तस्य रयेण रजसा तान्त्रिक विभूत्या वैद्यक प्रसिद्ध ताम्रादि भस्मना वा (पञ्चशाखः शयः पाणिरित्यमरः ) हाथ की धूल, जिसका आशय भभूत या आयुर्वेदीय भस्म से है। यह विदग्ध नायिका की वक्रमणिति है । २. सौ संभोग । ( शृङ्गार-पक्ष ) अथवा सय का अर्थ स्व है ( पाइयसद्दमहण्णव ) । इस प्रकार 'सयरयेण' का अभिप्राय अपने द्वारा दी हुई भभूत या आयुर्वेदीय भस्म से है। रजत-सुवर्णादिभस्मों के साथ-साथ झाड़-फूंक वाली भभूतों से भी रोगों का उपचार होता है। उपर्युक्त सरणि से उपचार और शृङ्गार-दोनों पक्षों में सम्पूर्ण गाथा के ये अर्थ होंगे उपचार-पक्ष-वैद्य ! अन्य बार मेरा ज्वर हाथ की भभूत ( या आयुर्वेदीय भस्म या तुम्हारी भभूत या भस्म ) से मारा गया था (नष्ट हो गया था) यदि उसे नहीं देना चाहते तो क्या मट्टा भी नहीं होगा ( मिलेगा)। शृङ्गार-पक्ष-वैद्य, अन्य बार मेरा ज्वर सौ संभोगों से नष्ट हो गया था, यदि उतना नहीं देना चाहते तो क्या छियासी संभोग भी नहीं होंगे ? भाव यह है कि पहली बार नायिका का कामज्वर नायक ( वैद्य ) के सौ बार रमण करने से दूर हो गया था, इस बार वह छियासी ( चौदह कम ) ही चाह रही है। गाथा क्रमांक ५२० मोत्तूण बालतंतं तह य वसीकरणमंततंतेहिं । सिद्धत्थेहि महम्मइ तरुणी तरुणेण विज्जेण ।। ५२० ॥ गाथा में स्थित महम्मइ शब्द को टीका में उद्धृत करके भो रत्नदेव ने कोई अर्थ नहीं दिया है। प्रो० पटवर्धन ने इसकी छाया 'प्रहण्यते' की है। उनके अनुसार हम्महन् का धात्वादेश है और क्रिया के आदि में विद्यमान 'म' प्र उपसर्ग है। परन्तु प्र उपसर्ग के स्थान पर म का प्रयोग अस्वाभाविक और नियम विरुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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