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वज्जालग्ग
यदि व्रजसि व्रज त्वमञ्चले गृहीतश्च कुष्यसि कस्मात् ।
प्रथममेव स मुच्यते यो जीवति तव वियोगेन । रत्नदेव ने उत्तरार्ध की व्याख्या इस प्रकार की है:
प्रथममेव स मुच्यते यस्तव वियोगे जीवति । अहं तु न तथेति । अर्थात् जो तुम्हारे वियोग में जीवित रहता है, वह प्रथम ही छोड़ दिया जा रहा है। मैं वैसी नहीं हूँ। इस व्याख्या में स्पष्ट नहीं है कि नायक के विरह में कौन जीवित रहता है, जिसका परित्याग प्रथम ही किया जा रहा है और जिसके समान नायिका नहीं है। अंग्रेजी टिप्पणी में लिखा है कि इस गाथा के द्वितीया का भाव स्पष्ट नहीं है। यदि इस गाथा को निम्नलिखित प्रसंग में रखकर व्याख्या करें तो अस्पष्टता नहीं रह जायगीः
नायक के प्रवास की अवधि में उसकी विरह विधुरा प्रेयसी जैसे-तैसे रोतेझंखते दिन काट लेती थी। इस बार जब वह पुनः प्रयाणोद्यत हुआ तब प्रियतमा ने झट से आंचल पकड़ कर रोक लिया। प्रिया के इस अप्रत्याशित प्रतिरोध से नायक को कुछ रोष आ गया। यह देखकर नायिका ने आँचल छोड़ दिया और विनीत होकर बोली:
अर्थ-यदि तुम जाते हो तो जाओ, आँचल पकड़ने पर क्रोध क्यों करते हो? जो तुम्हारे वियोग में ( प्रत्येक बार ) जीवित रहता था, उस (शरीर ) को मैं पहले ही छोड़ दे रही हूँ।
गाथा क्रमांक ३७४ अज्जं चेय पउत्थो उज्जागरओ जणस्स अज्जेय ।
अज्जेय हलद्दीपिजराइ गोलाइ तुहाई ॥ ३७४ ।। तूह का अर्थ तीर्थ या घाट है। 'गोलाई तुहाई" की छाया गोदावर्याः तीर्थानि होना चाहिये । आमासय सम तूह मणोहर । ( पउमचरिउं, विद्याधर काण्ड)
गाथा क्रमांक ३९४ ए कुस मसरा तुह डज्झिहिंति मा भणसु मयण न हु भणियं । पिय विरहतावतविए मह हियए पक्खिवंतस्स ॥ ३९४ ।।
( हे कुसुमशरास्तव धक्ष्यन्ते मा भण मदन न खलु भणितम् । प्रिय विरहतापतते ममहदये प्रक्षिपतः ।।)
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