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________________ वज्जालग्ग २२१ *६४१. सरलता से टूट जाने वाले (या सुख उत्पन्न करने वाले) सहिजन को देखते ही प्रसन्न मत हो जाओ, (गिरकर) टूट जाओगी-इस प्रकार शाखा पर आश्रित (डाल पर चढ़ी) तरुणी सब लोगों के द्वारा हँसी गई ॥ १२॥ द्वितीयार्थ-"इस प्रिय दर्शन और अस्थिस्प्रणय तरुण को देखते ही अनुरक्त मत हो जाओ, निराश होना पड़ेगा"-इस प्रकार तरुणी लोगों के द्वारा हँसी गई। ६७-गिम्ह-वज्जा (ग्रीष्म-पद्धति) ६४२. ग्रीष्म से सूर्य तप रहा है और सूर्य से रेणु तप रही है। फिर सूर्य और ग्रीष्म (या उत्तरायण) दोनों से पृथ्वी तप गई है ॥ १ ॥ ६४३. ग्रीष्म में दवाग्नि की मसि से मलिन विन्ध्य के शिखर दिखाई दे रहे हैं, प्रोषितपतिके ! आश्वस्त हो जाओ, ये वर्षाकाल के नवीन मेघ नहीं हैं ।। २ ॥ ६४४. जन्तुओं के साथ संपूर्ण वन को जला कर अग्नि शुष्कवक्ष पर चढ़ गई। मानों फिर वह देख रही है कि अभी क्या शेष रह गया है।॥ ३॥ *६४५. सभी वृक्षों को शाखाएं जड़ों से निकलती हैं, जिन्होंने शाखाओं से ही जड़ें पकड़ी हैं, वे वृक्ष (बरगद) धन्य' हैं ॥ ४ ॥ ६८-पाउसवज्जा (प्रावृट-पद्धति = वर्षा-प्रकरण) ६४६. ग्रीष्म का प्रसार समाप्त हो गया, मेघ सम्मान पाकर गरज रहे हैं, मयूर भी मुखर हो उठे हैं। पावस-रूपी राजा की जय हो ।।१।। १. प्रो० पटवर्धन ने लिखा है (देखिये, भूमिका, पृ० १० की अंग्रेजी पाद टिप्पणी) कि यह गाथा उचित प्रकरण में नहीं रखी गई है। इसका उचित स्थान वडवज्जा में है। यदि इसे ग्रीष्मातप-तप्त पथिक की साभिलाषोक्ति मानकर सोचें तो यह अपने ही स्थान पर प्रतीत होगी। ग्रीष्म में बरगद की सघन छाया में पथिकों को सुख मिलता है । रत्नदेव ने 'वे वृक्ष' का अर्थ अग्नि किया है। वह भी अपनी शिखाओं (शाखाओं) से दूसरी जगह जड़ बाँध लेती है । * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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