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६३५. आम्रमंजरी को लेकर भ्रमर-रूपी प्रतिहार (द्वारपाल या दरबान) भ्रमण कर रहा है । अरे नरपति शिशिर ! हट जाओ, पृथ्वी को वसन्त ने प्राप्त कर लिया है' || ६ |
वज्जालग्ग
*६३६. भ्रमरों के प्रचुर कोलाहल से युक्त ( वासन्ती सुषमा का ) सहायक (या सहचर ) आम्र त्वरित त्वरित क्या कर रहा है ? (अर्थात् निन्दनीय कार्य करने जा रहा है) ऐसा लगता है, मानों पथिकों (विरहियों) के विनाश के लिये वासन्ती सुषमा संभावित है (अर्थात् वसन्त के आने की संभावना है। ॥ ७ ॥
६३७. पुत्र ! जिनका गृह शाखाओं पर है, प्रसार होता है और जिनका वर्ण पीत और लोहित पलाश - पुष्पों से मनुष्य विरही ) डर जाता है ॥ ८ ॥ अन्यार्थ - पुत्र ! जिनका गृह लंकापुरी में है, जो वसा, आँत और मांस से पुष्ट होते हैं और जो रक्त-पान कर चुके हैं, उन राक्षसों से मनुष्य डर जाता है ।
वसन्त मास में जिनका (लाल) है, उन
६३८. असह्य एवं भयानक विरह अकेला ही प्रोषितपतिकाओं को मार डालता है । तो फिर क्या भ्रमरों को लेकर चैत के साथ आया हुआ फागुन नहीं मारेगा ? ॥ ९ ॥
अन्यार्थ - दुनिवार्य भीमसेन रथहीन होने पर भी गजपतियों ( गजारोहियों या श्रेष्ठ गजों) को अकेले मार डालता है । तो फिर क्या कृष्ण के साथ आया हुआ अर्जुन नहीं मारेगा ?
६३९. (सोचा था ) आँगन में बढ़ता हुआ आम सहारा होगा, परन्तु वसन्त मास आने पर वह वसा, आँत और मांस को सुखा रहा है ॥ १० ॥ ( आम की मंजरियों से विरोद्दीपन होता है)
*६४०. हे कोकर' ! कण्टकों को धवलता और शाखाओं को श्यामता ( मलिनता) प्रदान करते हुए अनुचित ( कार्य ) मत करो अर्थात् दुष्टों का हित और सज्जनों का अहित मत करो क्योंकि तुम दोनों कंटकों और शाखाओं के आश्रय (आलय) कहे गये हो ॥ ११ ॥
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१. यह गाथा कौतूहलकृत लीलावई में भी पाई जाती है । संभवतः वहीं से संगृहीत हुई हो ।
२.
बबूल की जाति का वृक्ष ।
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य !
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