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६२९. झूठ या सच ही मुँहजले प्रवास का भी नाम लेते हो । सुभग ! बेचारा शशक ( मन ) चमड़ा कट जाने से भी (थोड़े कष्ट से भी ) मर जाता है ॥ ५ ॥
वज्जालग्ग
६६ – वसन्त - वज्जा ( वसन्त - पद्धति)
६३०. वन रूपी तुरंग पर आरूढ होकर वसन्त-रूपी राजा आ गया । भ्रमरों की झंकार तूर्यरव है और कोकिल के शब्दों में जयघोष हो रहा है ॥ १ ॥
६३१. धूसर ( मलिन) होने पर भी जिसने भ्रमर - गणों को संपूर्ण प्रसूनों से विमुख कर दिया है, उस सहकार ( आम्र) मंजरी को (ही) मंजरी नाम धारण करना चाहिये || २ ||
६३२. सहकार ( आम्र) अंकुरित हो गया, अशोक और कुन्द खिल गये और शिशिर के बीतने से सुखी (प्रसन्न होकर कमल ने सहसा आँखें खोल दीं ॥ ३ ॥
६३३. विशाल अरविन्द - मन्दिर में मकरन्द - पान से मुदित भ्रमरों की पंक्ति वसन्त - लक्ष्मी की मरकत - मणि मेखला के समान
झनझना
रही है ॥ ४ ॥
*६३४. दिशाओं में परिमल से भ्रमर-श्रेणियों को आनन्दित करने वाली, ( रस से ) आर्द्र, मणितुल्य मंजरियों से भी लोगों के हृदय में कामाग्नि प्रदीप्त हो उठती है ॥ ५ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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