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________________ ( iii ) प्रो० पटवर्धन ने वज्जालग्ग का अर्थ वज्जाओं (प्रकरणों) का समूह किया है जो ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि वे लाग की समूह वाचकता का संतोषजनक प्रमाण नहीं दे सके हैं। पिशेल ने उस काव्य को वज्जालग्ग बताया है जिपका प्रधान लक्षण (चिह्न) वज्जा (प्रकरण) है। मुझे यह अर्थ अधिक सटीक एवं प्रामाणिक लगता है । इस दृष्टि से हम किरातार्जुनीय और शिशुपालकत्र को भी श्रयंक काव्य कह सकते हैं क्योंकि उनके प्रत्येक सर्ग के अन्त में श्री या लक्ष्मी शब्द का प्रयोग है। प्राकृत में भी कृष्णलोला शुरु ने सिरिचिंध (श्री चिह्न) नामक काव्य की रचना की है जिसके प्रत्येक सग के अन्त में सिरो (श्री) का प्रयोग है । रचना-शैली के आधार पर ग्रन्थ का नामकरण कोई नई बात नहीं है और न अस्वाभाविक ही है। गाहासत्तसई का नाम भो संग्रह शैली को दिशा में स्पष्ट संकेत करता है। उसमें पद्यों को शतक क्रम में रख कर प्रत्येक शतक के समाप्त होने को सूचना दी गई है। प्रस्तुत संग्रह ग्रन्थ में शतक क्रम को प्रमुखता नहीं है । गाथायें प्रकरण के अनुसार रखो गई हैं। दूसरे शब्दों में यह शतकबद्ध नहीं, प्रकरणबद्ध रचना है। अतः सत्तसई से अपना शैलोगत वैशिष्ट्य प्रकट करने के लिए संग्रहकार ने इसे प्रकरणबद्ध (वज्जालग्ग) ग्रन्य संज्ञा दो है। यदि हम लग्ग को देशी शब्द मान कर विह्न के अर्थ में न ग्रहण करें, उसे संस्कृत लग्न के अर्थ में हो रहने दें, तो वज्जालग्ग से उस काव्य का अर्थ-बोध होगा जो वज्जाओं (प्रकरणों) से संलग्न हो (व्रज्याभिः लग्नं निबद्ध काव्यं व्रज्यालग्नम् अर्थात प्रकरणबद्ध रचना) या व्रज्याबद्ध शैली में रचा गया हो । विद्वानों के अनुसार इस काव्य का दूसरा नाम जयवल्लभ है। इस बहुचचित मत का निराकरण तृतीय गाथा के अर्थ-निरूपण में किया गया है। संग्रहकार और उनका समय संग्रहकार ने सर्वज्ञ वदन पंकज निवासिनी श्रुत देवी को प्रारंभ में प्रणाम किया है, इस से उनका जैन होना निश्चित है। टीकाकार रत्नदेव के अनुसार १. श्री शब्दरम्यकृतसर्गसमाप्तिलक्ष्म लक्ष्मीपतेश्चरितकोनिमात्रचारु । तस्यात्मजः सुकविकोतिदुराशयोऽदः काव्यं व्यवत्त शिशुपालवधाभिधानम् ॥ -माघ २. संस्कृत में प्रकरण या अधिकार के अर्थ में व्रज्या शब्द का प्राचीनतम प्रयोग विद्याकर प्रणीत सुभाषितरत्नकोष में दिखाई देता है । इस सुभापित संग्रह का रचनाकाल ११०० ई० के लगभग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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