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वज्जालग्ग
१४३ दूती अधरों और कपोलों पर लगे दन्त-क्षत को छिपाने के लिए मुँह नीचे करके खड़ी थी। नायिका ताड़ गई। गाथा में दूती के प्रति उसकी श्लेषगर्भित व्यंग्योक्ति है') ॥ ५ ॥
__ *४१८. हे दती ! मेरे निकट तक आने में जो स्वेद उत्पन्न हआ है, उससे तुम्हारे अंग भीग गये हैं, तुम्हारा कचपाश (जूड़ा) किंचित् खिसक गया है, तुम्हारे स्तनों, जघनों, कपोलों और नखों पर लगे घावों से ज्ञात हो गया है कि तुम कहीं (मार्ग में) गिर पड़ी हो ॥६॥ __ शृंगार-पक्ष-तुम्हारे अंग समागमजनित स्वेद से आर्द्र हो गये हैं, तुम्हारा कचपाश किंचित खिसक गया है, स्तन, जघन और कपोलों पर लगे नखों के क्षतों से ज्ञात हो गया है कि तुम पतित (आचरण से) हो चुकी हो।
४१९. *हे दूती! राक्षसों के लोक में भी दूतियाँ इस प्रकार स्पष्ट रूप में (स्वामी के हित को) नहीं खा जाती हैं। हमारे वश में रहने वालों (सेवकों) को अब यह अवस्था हो गई है ? ॥ ७ ॥
४२०. विलास एवं कटाक्ष-विक्षेप के साथ बातें करने वाली दूती को छोड़िये, उस गाँव की कुटिल कुतिया भी देखने पर सुख देती है ।। ८ ।।
४२१. जो कोमल आलाप में पटु हैं और व्यभिचारिणी स्त्रियों का सन्देश (या समाचार) ले जाया करती हैं, वे दो-तीन दूतियां जहां न हों, वह गांव नहीं, वन है ॥ ९ ॥
४४-ओलुग्गाविया-वज्जा (अवरुग्णा-पद्धति) ४२२. तुम्हारा नाम सुनने पर विस्तृत नितम्बों (या योनि) से झरने वाले प्रेम-रस से मानों भीगी हुई वह रति-मन्दिर में भ्रमण करती है ॥१॥
(आर्द्रता का कारण सात्त्विकभावोद्रेक या चित्त-द्रुति है)
*४२३. हे सुभग ! प्रचुरधन के कारण जिस की आशा बढ़ गई थी, जिसे तुम्हारे संगम की इच्छा थी और जो सैकड़ों मनौतियां कर रही थी, उसे देवता भी न मिले ॥ २ ॥ १. जइ न सु आवइ दुइ घरु, काइँ अहो मुहु तुज्झु । वयणु जु खण्डइ तउ सहिए, सो पिउ होइन मज्झु ॥
-हेमचन्द्र-कृत प्राकृत व्याकरण २. मूल में धम्मिल की छाया केशपाश की गई है । वस्तुतः वह जूड़े के
अर्थ में आने वाला संस्कृत शब्द है । * विस्तृत विवेचन परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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