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________________ वज्जालग्ग २४४. * भ्रमर ! अपना दिन काटो, अरूसे के फूलों को तब तक मत छोड़ो। मैं समझता हूँ कि जीवित रहोगे तो वसन्त का प्रचुर वैभव फिर देखोगे ।। ९ ।। ८५ २४५. पंकज पुंज में घर करने वाले भ्रमर ! मालती के वियोग में भटको मत । भाग्यविपरीत होने पर लौकी के फूल भी नहीं मिलते हैं ।। १० ।। ३४६. अरे भ्रमर ! अन्य फूलों से प्रेम जोड़ लो । अरे यह उत्कंठा छोड़ दो । सोचते-सोचते ही मर जाओगे | इस शरद् में मालती कहाँ ? ।। ११ ।। २४७. भँवरा भ्रमणशील होता है-इस प्रकार का दोष गुणहीन पुष्प लगाते हैं । ( किन्तु ) मालतो को पाकर वह निपुण भँवरा यदि अन्यत्र चला जाय, तब समझें ॥ १२ ॥ २४८. कुन्दलता के मुकुल पर स्थित भ्रमर ने मालती को 'स्मरण करके कुछ ऐसी लम्बी साँस ली कि उससे वह जलकर भस्म हो गई ॥ १३ ॥ Jain Education International २४९. *एक बार बहुपरिमला प्रफुल्ल केतकी के मकरन्द से जिसके अंग सुवासित हो चुके हैं, ऐसे किस भ्रमर ( या युवक ) को चिरकाल में मनोवांछित प्रियाओं (कलिकाओं या लताओं या तरुणियों) की उपलब्धियाँ सदा होती हैं ? अर्थात् सदा नहीं होती हैं ॥ १४ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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