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वज्जालग
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२१४. वणिक ! व्याघ्रों के नख, सिंहों के केसर और गजेन्द्रों के मौक्तिक कहाँ ? हमारे पास तो मृगचर्म भी नहीं है ॥ ११ ॥ __ (पुत्र की विषय-प्रसक्ति से खिन्न व्याध-माता की उक्ति है। वह कहती है कि मेरा विषयी-पुत्र अब हाथियों और व्याघ्रों को कौन कहे, तुच्छ मृगों को भी नहीं मार पाता है)
२३–हरिण-वज्जा (हरिण-पद्धति) २१५. हरिण वन में रह कर भी गीत का महत्त्व जानते हैं। उन के पास धन नहीं है, व्याध (शिकारी) को जीवन ही अर्पित कर देते हैं । १ ।।
२१६. हम तृणांकुरों का भोजन करते हैं, हमारे पास (देने के लिए) कुछ भी संचित द्रव्य नहीं है । यदि वह गाने वाला व्याध हमारे मांसपिण्ड से तुष्ट हो कर चला जाय, तो धन्य हो जायेंगे ॥ २ ॥
२१७. व्याध ! एक ही बाण छोड़ो, दूसरा क्यों लेते हो। इन दोनों (हरिण और हरिणी) के शरीरों में एक ही जीव बसता है (अर्थात् एक के मारने पर दोनों ही मर जायेंगे ।। ३ ।।
२१८. शर-विद्ध बूढ़े हरिण ने कन्धा हिला कर कहा-( व्याध !) जब तक कण्ठ में जीव है, तब तक गाओ और फिर गाओ ॥४॥
२१९. मृग तो आघात से मर गया, मृगी मृग के करुण शब्द को सून कर मर गई, व्याध-वधू आश्चर्य से मर गई और व्याध ने भी धनुष रोक कर अपने प्राण छोड़ दिए' ॥ ५ ॥ १. पहरेण मओ विहरेण तह मई धरिणिणयणसंभरिओ वाहो वियलियवाहो तिणि वि सभयं चिय मयाई ॥
-लीलावई
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