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विणए सिस्सपरिक्खा, सुहड़परिक्खा य होइ संगामे । वसणे मित्तपरिक्खा, दाणपरिक्खा य दुक्काले ॥४४॥ आरंभे नस्थि दया, महिलासंगेण नासए बंभं । संकाए सम्मत्तं, पव्वज्जा अस्थगहणेण ॥४५॥ दीसइ विविहच्छरिअं, जाणिज्जइ सुअणदुज्जणविसेसो ।। अप्पाणं कलिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए ॥४६॥ सत्थं हिअयपविट्ठ, मारइ जणे पसिद्धमिणं । तं पि गुरुणा पउत्तं, जीवावइ पिच्छ अच्छरिअं ॥४७॥ जणणी जम्मुप्पत्ती, पच्छिमनिद्दा सुभासिमा गुद्री । मण इंद्रं माणुस्सं, पंच वि दुक्खेहिं मुच्चंति ॥४८॥ जं अवसरे न हूअं, दाणं विणओ सुभासि वयणं । पच्छा गयकालेणं, अवसररहिएण किं तेण ? ॥४९॥ उवभुजिउं न याणइ, रिद्धिं पत्तो वि पुण्णपरिहीणो । विमले वि जले तिसिओ, जीहाए मंडेलो लिहइ ॥५०॥ आकड्ढिऊण नीरं, रेवा रयणायरस्स अप्पेइ । न हु गच्छेइ मरुदेसे, सच्चं भरिआ भरिज्जति ॥५॥ सा साई तंपि जलं, पत्तविसेसेण अंतरं गुरु । अहि"हि पडिभं गरलं, सिप्पिउँडे मुत्तियं होइ ॥५२॥ केसिंचि होइ वित्तं, चित्तं अन्नेसिमुभयमन्नेसि । चित्तं वित्तं पत्तं, तिणि वि केसिंचि धन्नाणं ॥५३॥ कत्थ वि दलं न गंधो, कत्थ वि गंधो न होइ मयरंदो । इसकुसुममि महुयर !, दो तिण्णि गुणा न दीसंति ॥५४॥
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