SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो उण न हणई जीये, तो तेर्सि जीवियं सुहं विभवं । न हणइ तत्तो तस्स वि, तं न हणइ को वि परलोए ॥८॥ + ता भदेण व नूनं कथाणुकंपा मए वि पुव्वभवे । जं लंधिऊण वसणाई, रज्जउच्छी इमा लद्धा ॥९॥ ता संपइ जीवदया, जावज्जीवं मए विहेयव्वा । मंसं न भक्खियव्वं, परिहरियन्वा य पारैद्धी ॥१०॥ जो देवयाण पुरओ, कीरइ आरुग्गसंतिकम्मकए । पसुमहिसाण विणासो, निवारियव्वो मए सो वि ॥ ११ ॥ बालो वि मुणइ एवं, जीववहेणं लब्भइ न सग्गो । किं पन्नगमुहकुहराओ, होइ पीऊर्सरसवुट्टी ॥१२॥ तो गुरुणा वागरियं, नरिंद ! तुह धम्मबंधुरा बुद्धी । सव्वुत्तमो विवेगो, अणुत्तरं तत्तदंसित्तं ॥ १३॥ जं जीवदयारम्मे, धम्मे कल्लाणजणणकयकम्मे | सग्गापवग्गपुरमग्ग- दंसणे तुह मणं लीणं ॥ १४ ॥ तओ रन्ना रायाएसपेसणेण सव्वगामनगरेसु अमारिघोस - णापडहवायणपुर्व पवत्तिया जीवदया । गुरुणा भणिओ राया, महाराय ! दुप्पच्चया पाएण मंसगिद्धी । धन्नो तुमं भायणं सकलकल्लाणाणं जेण कया मंसनिवित्ती । X X संपयं मज्जव सणदो से सुणसु नच गायइ पहसर, पणमइ परिभमइ मुयह वत्थं पि । तूसइ रूसइ निक्का-रणं पि मईरामउम्मत्तों ॥१॥ Jain Education International X For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001734
Book TitlePrakrit Vigyana Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOpera Jain Society Sangh Ahmedabad
PublisherOpera Jain Society Sangh Ahmedabad
Publication Year1988
Total Pages512
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Education, & Grammar
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy