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________________ ४२ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना योग जैनदर्शन में बन्धन के कारणों में योग को भी स्थान दिया गया है। यहाँ योग शब्द का तात्पर्य मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें हम मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ भी कह सकते हैं। किन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि क्रियाएँ स्वतः बन्धन का कारण नहीं बनती। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार क्रोधादि कषायों से अनुरंजित क्रियाएँ ही बन्धन का कारण हैं। संसार में जो विषमताएँ हैं, वे कर्मजन्य हैं अर्थात् उनके पीछे कहीं न कहीं मनुष्य की कायिक, वाचिक या मानसिक क्रियाएँ रही हुई हैं। जब व्यक्ति वासनाओं या क्रोधादि आवेगों से प्रेरित होकर कोई क्रिया करता है, तो वह अपने वैयक्तिक जीवन और सामाजिक जीवन को विषम स्थितियों में डाल देता है। यद्यपि विषमता के मूल में तो कहीं न कहीं व्यक्ति की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ अथवा आवेग ही कार्य करते हैं, किन्तु उनको अभिव्यक्ति तो मानसिक, वाचिक या कायिक क्रियाओं के द्वारा ही मिलती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि वासनाओं, इच्छाओं और कषाय दृष्टि आवेगों से अनुप्रेरित जो मानसिक, वाचिक, कायिक क्रियाएँ हैं, वे भी विषमताओं को उत्पन्न करने में एक प्रमुख कारण बनती हैं। विषमताएँ चाहे चैतसिक हों या सामाजिक, वे अकारण नहीं होतीं। उनके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। यदि हम उन कारणो का विश्लेषण करें तो निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण, अनियन्त्रित व असंयमित व्यवहार, असजगता और वासनाओं या कषायों से उद्वेलित मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाएँ ही चैतसिक और वैश्विक विषमताओं की मूल कारण हैं। जब तक ये कारण बने हुए हैं तब तक न तो वैयक्तिक जीवन में समत्व या शान्ति की उपलब्धि हो सकती है और न सामाजिक या समता की संस्थापना हो सकती है। अगले अध्यायों में हम देखेंगे कि ये विषमताएँ कितने प्रकार की हैं और समत्वयोग की साधना के द्वारा इनका निराकरण कैसे सम्भव है ? ।। प्रथम अध्याय समाप्त।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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