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________________ ३८ अविरति अविरति का सामान्य अर्थ संयम या आत्म निहित शक्ति का अभाव है। जब तक व्यक्ति बाह्य पदार्थों में आसक्त बनकर उनकी इच्छा या आकांक्षा रखता है, तब तक उसमें चैतसिक समत्व का विकास सम्भव नहीं है । इच्छा और आकांक्षाओं की उपस्थिति में वह एक कमी का अनुभव करता है । उसमें आत्मतोष का अभाव होता है । इच्छा और आकांक्षा की उपस्थिति हमारे चैतसिक समत्व को भंग कर देती है । जब तक चित्त में इच्छा और आकांक्षाएँ बनी हुई हैं, तब तक व्यक्ति तनाव की स्थिति में ही रहता है। जब तक तनाव है तब तक चैतसिक समत्व का अभाव होता है । इस आधार पर हम यह स्पष्ट कह सकते हैं कि व्यक्ति में इच्छा और आकांक्षा की उपस्थिति ही उसे समत्व से विचलित करती है। अतः उन्हें समत्व से विचलन का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण माना जा सकता है । विरति का अभाव अविरति है । १०१ प्रमाद समत्व के विचलन का तीसरा कारण प्रमाद या असजगता है । हमारी चेतना को समत्व से विचलित करने वाला तीसरा कारण प्रमाद है । प्रमाद का अर्थ असजगता है। असजग व्यक्ति के सामने अपना लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता और न वह अपने हिताहित का विचार कर सकता है। अतः उसका समत्व से विचलित होना स्वाभाविक है। असजगता अनिर्णयात्मक होती है । अनिर्णय की अवस्था में चित्त का विचलन बना रहता है । जहाँ चित्त विचलित रहता है, वहाँ निश्चय ही समत्व का अभाव होता है । समत्वयोग के साधक को अप्रमत्त या सजग होना आवश्यक है; क्योंकि बिना सजगता के चित्तवृत्ति की एकाग्रता सम्भव नहीं है और जहाँ चित्त की वृत्तियाँ विचलित होती रहती हैं, वहाँ समत्व सम्भव नहीं होता । सूत्रकृतांगसूत्र में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा गया है ।' इसका तात्पर्य यह है कि जब तक प्रमाद है तब तक १०२ १०१ सर्वार्थसिद्धि १/३२ । १०२ 'कोह च माणं च तहेव मायं । जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना लोभं चउत्थं अज्झत्थ दोसा ।। २६ ।।' Jain Education International For Private & Personal Use Only -सूत्रकृतांग १/६ । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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