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________________ जैन साधना में समत्वयोग का स्थान प्राप्त करता है।६३ समत्वयोग से वीतरागभाव का संचार सिद्ध या मुक्त वीतराग परमात्मा का स्वरूप परम निर्मल, शान्तिमय, राग-द्वेष से रहित वीतरागयुक्त होता है। उनके ध्यान, चिन्तन, मनन या अवलम्बन से समत्वयोगी की आत्मा में वीतराग भाव का स्वयंमेव ही संचार होता है। कहावत भी है जैसा रंग वैसा संग। सज्जन के सान्निध्य से सुसंस्कारों का प्रकटन होता है और दर्जन के सान्निध्य से कसंस्कारों का। अतः वीतराग प्रभु के, सन्निकटता और संगति से हृदय में अवश्य ही वीतरागता के भाव जाग्रत होते हैं। सान्निध्य या संगति पाने का अर्थ है उनका नाम स्मरण, गुण स्मरण, स्तवन, जप, स्तुति, नमन, गुणगान आदि करना। इस प्रकार वीतराग के सान्निध्य से मन की शुद्धि और उल्लास बढ़ता जाता है। स्पष्ट करते द्वन्द्व से ऊपर सूचक है। १.८ समत्वयोग का तात्पर्य समत्वयोग का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने बताया है कि समत्व चेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है।४ वह निराकुल, निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प दशा का सूचक है। समत्वयोग जीवन के विविध पक्षों में एक ऐसा सन्तुलन है जिसमें न केवल चैतसिक एवम् वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं। शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी साधना में प्रयत्नशील हों। समत्वयोग में इन्द्रियाँ अपना कार्य तो करती हैं, लेकिन उनमें भोगासक्ति नहीं होती और न ही इन्द्रियों के विषयों की अनुभूति चेतना में राग और द्वेष को जन्म देती है। चिन्तन तो होता है, किन्तु उससे पक्षवाद और वैचारिक दुराग्रहों का निर्माण नहीं होता। ६३ 'वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् ।। ___ रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् ।। १३ ।।' -योगशास्त्र अध्ययन ६ । ९४ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २० । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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