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________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना भाववाचक 'त्व' प्रत्यय लगाकर 'समत्व' शब्द बना है । यह शब्द समभाव का सूचक है । समत्व और समभाव पयार्यवाची शब्द हैं । इसी सम शब्द में भाववाचक 'तल्' तथा स्त्रीवाची 'टाप्' प्रत्यय लगने से समता शब्द निष्पन्न होता है । इस प्रकार समत्व शब्द का अर्थ समता भी है। एक अन्य दृष्टि से चित्त की वृत्तियों का राग-द्वेष से हटकर समभाव में स्थिर रहना ही समत्व या समता है । सम् शब्द का एक अन्य अर्थ समदृष्टि अर्थात् आत्मवत् दृष्टि भी होता है । दूसरे शब्दों में सभी प्राणियों को आत्मवत् समझना समभाव है । समभाव शब्द का एक अन्य अर्थ एकीभाव या एकत्व भी है। वह आत्मरमण या स्वानुभूति की स्थिति है। संस्कृत भाषा की दृष्टि से प्राकृत 'सम' शब्द के तीन रूप होते हैं- सम्, शम और श्रम। इनमें से प्रथम सम् शब्द राग-द्वेष से रहित चित्तवृत्ति के समभाव या समत्व का सूचक है, दूसरा 'शम' शब्द कषायादि वासनाओं के शमन को सूचित करता है और तीसरा 'श्रम' शब्द आत्मपुरुषार्थ का सूचक है। २२ समत्व और योग शब्दों की इन परिभाषाओं के आधार पर समत्वयोग की निम्न प्रकार से व्याख्या की जा सकती है सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, अनुकूल-प्रतिकूल आदि परिस्थितियों में चित्त का विचलित नहीं होना ही समत्वयोग है। ८.५ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समत्व का अर्थ चित्त की निर्द्वन्द्व अवस्था है । जिस साधना के द्वारा चित्त राग-द्वेष और तृष्णाजन्य विकल्पों से रहित बने अथवा राग-द्वेष इच्छा और आकांक्षा से मुक्त हो, वही समत्वयोग है । दूसरे शब्दों में चित्त का विकल्प शून्य होना ही समत्वयोग है । तीसरी वैचारिक दृष्टि से पक्षाग्रह हमारी बुद्धि के समत्व को भंग करते हैं । अतः वैचारिक स्तर पर चित्तवृत्ति का आग्रहों से मुक्त होना ही समत्वयोग की साधना है । 1 समाजशास्त्रीय दृष्टि से समत्व का अर्थ आत्मवत् दृष्टि है । संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत् समझना ही समत्वयोग है । दूसरे शब्दों में जो दूसरों के सुख-दुःख को भी अपने ही समान ८५ 'यं हि न व्यथयन्त्येते पुरूषं पुरुषर्षभ । यमदुःखसुःखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।। १५ ।।' - Jain Education International For Private & Personal Use Only - गीता अध्याय २ । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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