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________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना ही नेत्र है, ऐसे सत्पुरुष का ही अनन्तज्ञानरूपी लक्ष्मी वरण करती है।३२ तू समभाव में स्थित होकर अपने आत्मस्वरूप का ध्यान कर, जिससे यह आत्मा राग-द्वेष आदि से आक्रान्त न हो। यह राग-द्वेषरूपी वन मोहरूपी सिंह के रक्षित हैं। समभावरूपी अग्नि की ज्वाला ही इसे दग्ध करने में समर्थ है।२३ जब व्यक्ति की आत्मा में मोहरूपी कर्दम सूख जाता है, तब रागादि के बन्धन भी दूर हो जाते हैं और व्यक्ति के चित्त में जगत्-पूज्य समभावदृष्टि लक्ष्मी निवास करने लगती है। समभाव या समत्वयोग की साधना से आशादष्टि बेल नष्ट हो जाती है, अविद्या विलीन हो जाती है और वासनारूपी सर्प मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार समत्वयोग की शक्ति महान् है। जो कर्म करोड़ों वर्षों तक तप करने पर भी नष्ट नहीं होते, उन्हें समत्वरुपी भूमिका पर आरूढ़ मुनि पलक झपकने जितने काल में नष्ट कर देता है।६ समत्व में अवस्थित होने को ही सर्वज्ञ परमात्मा का ध्यान कहा गया है। इतना ही नहीं आचार्य शुभचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि शास्त्रों का जो विस्तार है, वह मात्र समत्वयोग की महिमा को प्रकट करने के लिये है। समत्वभाव से भावित आत्मा को जो सुख होता है, उसे जानकर ही ज्ञानीजन समत्वयोग का अवलम्बन लेते हैं। जो व्यक्ति अपनी -वही । -वही । -वही । ३२ 'साम्यवारिणिशुद्धानां सतां ज्ञानकचक्षुषाम् । इहैवानन्तबोधादिराज्य लक्ष्मीः सुखी भवेत् ।। ७ ।।' 'रागादिविपिनं भीमं मोहशार्दूलपालितम् । दग्धं मुनिमहावीरैः साम्यधूमध्वजार्चिषा ।। ६ ।।' 'मोहपके परिक्षीणे शीर्णे रागादिबन्धने । नृणां हृदि पदं धत्ते साम्यश्रीविश्ववन्दिता ।। १० ।।' 'आशाः सद्यो विपद्यन्ते यान्त्यविद्याः क्षयं क्षणात् । म्रियते चित्तभोगीन्द्रो यस्य सा साम्यभावना ।। ११ ।।' ___ 'साम्यकोटि समारूढो यमी जयति कर्म यत् । निमिषान्तेन तज्जन्मकोटिभिस्तपसेतरः ।। १२ ।।' 'साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वदर्शिभिः । तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः ।। १३ ।। 'साम्यभावितभावानां स्यात्सुखं यन्मनीषिणाम् । तन्मन्ये ज्ञानसाम्राज्यसमत्वमवलम्बते ।। १४ ।।' -वही । -ज्ञानार्णव सर्ग २४ । -वही। -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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