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________________ अध्याय १ जैन साधना में समत्वयोग का स्थान १.१.१ जैन साधना में समत्वयोग का स्थान समत्वयोग साधना का केन्द्रीय तत्त्व है। जैन साधना को यदि एक ही वाक्य में अभिहित करना हो तो वह समभाव या सामायिक की साधना है। समत्वयोग (सामायिक) की साधना जैन धर्म का 'अथ' और 'इति' है। भगवान महावीर ने भगवतीसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा है कि “आत्मा समत्व (सामायिक) रूप है और उस समत्व (समभाव) को जीवन में उपलब्ध कर लेना ही सम्पूर्ण साधना का अर्थ या प्रयोजन है।"' आचारांगसूत्र में कहा गया है कि आर्य जनों ने समभाव की साधना को ही धर्म कहा है। जैन साधकों के जो छः आवश्यक कर्त्तव्य माने गए हैं, उनमें सामायिक अर्थात् समत्वयोग का स्थान सर्वोपरि है। सामायिक की साधना वस्तुतः समत्वयोग की साधना ही है। सामायिक शब्द सम् उपसर्गपूर्वक अय् धातु से निष्पन्न है। 'अय' ? (इ-धि-ए+अ=अय्) धातु के तीन अर्थ हैं ज्ञान, गमन और प्रापण। प्रापण शब्द प्राप्ति या उपलब्धि का वाचक है। सम् उपसर्ग ज्ञानार्थक अय् धातु का अर्थ है कि हमारा ज्ञान सम्यक् होना चाहिए। इसी प्रकार हमारी क्रिया या आचरण और हमारी उपलब्धि भी सम्यक् होनी चाहिए। आचार व व्यवहार सम्यक् होना ही सामायिक या समत्वयोग की साधना है। सामायिक शब्द का सामान्य अर्थ है "जिससे समभाव की प्राप्ति हो वह सामायिक है।" दूसरे शब्दों में समभाव की दिशा में साधक की यात्रा ही सामायिक है। वस्तुतः सामायिक शब्द एक व्यापक अर्थ रखता है, जिसमें ' 'आयाए समाइए, आया सामाइस्स अट्ठे।' २ 'समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए।' -भगवतीसूत्र १/६/२२८ । -आचारांगसूत्रसूत्र १/५/३/१५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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