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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का तृतीय अध्याय समत्वयोग के साध्य, साधन और साधना मार्ग के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। वस्तुतः भारतीय दर्शनों में मोक्ष को चरम आदर्श के रूप में प्रतिपादित किया जाता है; किन्तु यह मोक्ष समत्व की अवस्था से पृथक् नहीं है। हम पूर्व में ही इसकी चर्चा कर चुके हैं कि मोह और क्षोभ से रहित जो आत्मा की अवस्था है, वही मोक्ष है। इस मोक्ष की साधक आत्मा भी अपने स्वस्वरूप की अपेक्षा से समत्व रूप ही है। यह सत्य है कि आत्मा में समत्व से विचलन पाये जाते हैं अर्थात् समत्व स्वरूप वाली आत्मा विभाव दशा को प्राप्त होती है या राग-द्वेष आदि से युक्त होती है। यही आत्मा साधक है। जिस प्रकार स्वस्थता व्यक्ति का निज लक्षण है, किन्तु बाह्य निमित्तों से उसमें बीमारी या रोगों का आगमन हो जाता है; उसी प्रकार से समत्वरूप आत्मा राग-द्वेष आदि के निमित्त से अपने स्वभाव से विचलित हो जाती है। वह पुनः स्वस्थता और स्वस्वभाव को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न करती है, वही साधना मार्ग है और समत्व की पुनः उपलब्धि ही सिद्धि है। इस प्रकार तृतीय अध्याय में हमारा प्रतिपाद्य यही रहा है कि समत्वयोग में साधक, साध्य
और साधना-पथ एक दूसरे से घनिष्ट रूप से न केवल सम्बन्धित हैं; अपितु निश्चय दृष्टि से तो वे एक ही हैं। भारतीय परम्परा में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की साधना के जो उल्लेख हैं, वे वस्तुतः प्रकारान्तर से समत्वयोग की साधना के ही रूप हैं। समत्वयोग की साधना में साधक आत्मा है, जिसका स्वरूप तो समत्व है, किन्तु बाह्य निमित्तों के कारण वह अपने स्वस्वरूप से विचलित हो गई है। उसकी साधना भी इस स्वस्वरूप की उपलब्धि से अन्य कुछ नहीं है। इसी आधार पर चतुर्थ अध्याय में हमने यह बताने का प्रयास किया है कि समत्वयोग की साधना वस्तुतः आत्म-साधना ही है। समत्वयोग की वैयक्तिक साधना राग-द्वेष से ऊपर उठने अथवा आसक्ति और तृष्णा का प्रहाण करने में है। वैयक्तिक स्तर पर व्यक्ति जितना अनासक्त, वीततृष्ण या वीतराग बनेगा, वह उतना ही समत्वयोग की साधना में आगे बढ़ेगा। किन्तु समत्वयोग की साधना का एक सामाजिक पक्ष भी है, जिसकी चर्चा हमने चतुर्थ अध्याय में की है। समत्वयोग की सामाजिक साधना के क्रियान्वयन के लिए डॉ. सागरमल जैन ने चार सूत्र प्रस्तुत किये हैं :
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