SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना है। इसलिए कहा गया है कि वीतराग पुरुष या समत्वयोगी इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस आदि विषयों में राग-द्वेष नहीं करता। ये विषय रागी व्यक्ति के लिए ही दुःख का कारण होते हैं। वीतरागी के लिए दुःख के कारण नहीं होते। वस्तुतः समत्वयोगी वही है, जो न अनुकूल के प्रति राग करता है और न प्रतिकूल के प्रति द्वेष करता है। वह राग-द्वेष और मोहजन्य अध्यव्यसायों को दोष रूप जानकर उनके प्रति सदैव जाग्रत रहता है और अपनी चेतना को उनसे आक्रान्त नहीं होने देता। वस्तुतः वीतराग पुरुष या समत्वयोगी वही है जिसने राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर दिया है। वह सदैव समाधि भाव में स्थित रहकर संसार से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में समत्वयोगी या वीतराग के जो लक्षण कहे गये हैं, वे ही लक्षण बौद्धदर्शन में अर्हत् और गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षण कहे गये हैं। जैनदर्शन का समत्वयोगी या वीतराग, बौद्धदर्शन का अर्हत् और गीता का स्थितप्रज्ञ वस्तुतः समरूप ही प्रतीत होते हैं। तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से हम यहाँ बौद्धदर्शन के अर्हत और गीता के स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का क्रमशः वर्णन करेंगे। ५.४ बौद्धदर्शन अर्थात् अर्हत् का स्वरूप बौद्धदर्शन के अर्हत् को हम समत्वयोगी कह सकते हैं; क्योंकि जैनदर्शन में जो समत्वयोगी के लक्षण कहे गये हैं, वे बौद्धदर्शन के लक्षणों से मिलते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' नामक ग्रन्थ के प्रथम भाग में विस्तार से चर्चा की है। हम उसे ही आधारभूत मानकर यहाँ अर्हत् के लक्षणों का विवेचन करेंगे। बौद्धदर्शन में जीवन का आदर्श अर्हतावस्था को स्वीकार किया है। इस अर्हतावस्था का तात्पर्य तृष्णा' या राग-द्वेष की वृत्तियों का पूर्णतः क्षय होना है। बौद्धदर्शन में अर्हत् को स्थितात्मा, केवली, ६८ वही ३३/१०६-११० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy