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________________ समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन ३३५ साधना का आधार निर्भयता को बताती है। ५.२ बौद्धदर्शन में समत्वयोग बौद्धदर्शन में अष्टांगिक साधना-मार्ग के प्रत्येक अंग का सम् या सम्यक् होना आवश्यक माना गया है। यहाँ सम्यक् होने का तात्पर्य राग-द्वेष और मोह से रहित होना या उससे ऊपर उठना है। वस्तुतः राग-द्वेष का प्रहाण ही समत्वयोग की साधना का प्राण है। बौद्ध अष्टांगिक आर्य-मार्ग में अन्तिम अंग सम्यक् समाधि है। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में यदि हम समाधि को व्यापक अर्थ में ग्रहण करें, तो निश्चित ही वह मात्र ध्यान की एक अवस्था न होकर चित्तवृत्ति का समत्व है। चित्तवृत्ति का राग-द्वेष से शून्य होना तथा वीतराग अवस्था को प्राप्त होना, यही समाधि है। इस अर्थ में वह जैन परम्परा के समाहि (समाधि - सामायिक) शब्द से अधिक दूर नहीं है। सूत्रकृतांगचूर्णि में कहा गया है कि राग-द्वेष का परित्याग ही समाधि है।६० भगवान बुद्ध ने कहा है कि जिसने धमों को ठीक प्रकार से जान लिया और जो किसी मतमतान्तर के पक्ष में नहीं है, वही सम्बुद्ध है, समदृष्टा है और विषम स्थिति में भी उसका आचरण सम रहता है।' बुद्धि, दृष्टि और आचरण के साथ लगा हुआ सम् प्रत्यय बौद्धदर्शन में समत्वयोग का ही प्रतीक है; जो बुद्धि, मन और आचरण तीनों को सम बनाने का निर्देश देता है। संयुक्तनिकाय में कहा गया है कि आर्यों का मार्ग सम है। आर्य विषम स्थिति में भी सम का आचरण करते हैं।६२ धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि जो समत्व बुद्धि से आचरण करता है; जिसकी वासनाएँ शान्त हो गई हैं; जो जितेन्द्रिय है तथा संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करता है; जो सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखता है; किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता - ऐसा व्यक्ति चाहे १६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ७-८ । -डॉ. सागरमल जैन। सूत्रकृतांगचूर्णि १/२२ । र संयुक्तनिकाय १/१/८ । वही १/२/६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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