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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
कर रही है। यदि हमें इस परिभ्रमण से मुक्त होना है, तो हमें अपनी साधना के द्वारा ऐसा प्रयत्न करना होगा कि हम मुक्ति को प्राप्त कर सकें। संसार के दुःखमय स्वरूप को समझकर ही उससे विमुक्ति का प्रयत्न हो सकता है। यह विमुक्ति का प्रयत्न ही समत्वयोग की साधना है और यह साधना संसार के स्वरूप को जाने बिना सम्भव नहीं है । लोकभावना में हम संसार के स्वरूप को समझकर और उसमें परिभ्रमण के कारणों को जानकर इस संसार चक्र से मुक्त होने का प्रयत्न कर सकते हैं ।
११. धर्म भावना
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धर्म के स्वरूप को जानकर उसको जीवन में जीने का प्रयत्न करना ही धर्म भावना है । धर्म भावना में धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयत्न किया जाता है । समत्वयोग की साधना के लिये धर्म के स्वरूप को जानना आवश्यक है। भगवान महावीर ने आचारांगसूत्र में धर्म को समतामय बताया है ।" उनका कहना है कि समभाव में ही धर्म है । यदि हम समभाव को धर्म मानते हैं, तो इससे सिद्ध होता है कि समत्वयोग की साधना बिना धर्म भावना के सम्भव नहीं है । धर्म और समभाव एक दूसरे के पर्यायवाची हैं । जैन धर्म में धर्म की दूसरी परिभाषा अहिंसा के रूप में की जाती है । आचारांगसूत्र में कहा गया है कि भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमान में जो हैं और भविष्य में जो होंगे, वे सब यही कहते हैं कि किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचाना, दुःख नहीं देना और उसकी हिंसा नहीं करना । यही शुद्ध और शाश्वत् धर्म है । अहिंसा को धर्म के रूप में स्वीकार करने पर ही लोक जीवन में शान्ति स्थापित हो सकती है । अहिंसा धर्म के स्वरूप का चिन्तन करने पर लोक जीवन में समता और शान्ति की स्थापना सम्भव है । इस प्रकार धर्म भावना का समत्वयोग की साधना के साथ अत्यन्त गहन सम्बन्ध है । धर्म ही हमारा रक्षक है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जरा व मृत्यु के प्रवाह में बहते हुए लोगों के
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१८१ 'समिया धम्मे आरिएहिं पवेदिते'
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'एस धम्मे सुद्धे णिइिए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइिए । '
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-आचारांगसूत्र १/५/३/१५७ ।
-आचारांगसूत्र १/४/१/१३२ ।
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