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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
अज्ञानता है। शरीर की अशुचिता को जानकर ही मल्लिकुमारी की सुन्दरता पर रीझे हुए छः राजाओं को वैराग्य हो गया।
उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर एवं इन्द्रियों की आसक्ति को दुःख का कारण बताया गया है। हिरन को शब्द की आसक्ति, पतंगों को रूप की आसक्ति, भौंरे को गन्ध की आसक्ति, मत्स्य को स्वाद की आसक्ति और हाथी को स्पर्श की आसक्ति की विडम्बना भोगनी पड़ती है। इन आसक्तियों के पीछे वे अपने प्राण गंवा बैठते हैं।४६
अशुचिता की भावना का प्रयोजन शरीर की अपवित्रता का बोध कराकर आत्मा को देह के ममत्व से मुक्त कराना है। देह का आकर्षण कम होने से व्यक्ति का ध्यान आत्मा की ओर अभिमुख होता है। वह समत्व में रमण करने लगता है।
ज्ञानसार नामक ग्रन्थ में महोपाध्याय यशोविजयजी ने कहा है कि हे आत्मन्! देह के प्रत्येक अंग-उपांग के प्रति जाग्रत बनकर इसका उपयोग आत्मविशुद्धि की साधना के लिये करले। क्योंकि इस देह का एक कोना भी पवित्र नहीं है। इससे परमार्थ परोपकार करले, तपश्चर्या करले एवं गुरूजनों की सेवाभक्ति करले।५० ___ इस प्रकार अशुचि भावना से देहासक्ति टूटती है और समत्वयोग की साधना में दृढ़ता आती है।
७. आम्नव भावना
कर्मों के आगमन का मार्ग आस्रव कहलाता है। ज्ञानार्णव में बताया गया है कि वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति को योग कहते हैं
और इस योग को ही तत्त्वविशारदों (ऋषियों) ने आस्रव कहा है। राग-द्वेष के भाव, कषाय, विषय-भोग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्तरौद्र ध्यान आस्रव हैं।५२ आस्रव के कारणों का विचार और उनके के निरोध का प्रयास ही आसव भावना का मुख्य लक्ष्य है।
१४६ उत्तराध्ययनसूत्र १६/१३-१५ । -उद्धृत 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का
तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४२६ - डॉ. सागरमल जैन । १५०
'बाह्यद्दष्टि : सुधासार घटिता भाति सुन्दरी । तत्वद्दष्टेस्तु सा साक्षाद् विण्मुत्रपिठरोदरी ।।'
-ज्ञानसार । १५' 'मनस्तनुवचःकर्मयोग इत्यभिधीयते । ___ स एवानव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदेः ।। १ ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग २ (आस्रवभावना) । १५२ योगशास्त्र ४/७४-७८ ।
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