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________________ २८२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना ६. अशुचि भावना __अशुचि भावना के द्वारा आत्म-अनात्म की भिन्नता का बोध होता है। जीव का देह के प्रति प्रगाढ़ ममत्व है। उससे विमुक्ति पाना अशुचि भावना के द्वारा ही सम्भव है। प्रशमरतिसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा है कि साधक को शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग की अपवित्रता या अशुचि का चिन्तन करना चाहिये।४० यह शरीर तो पवित्र को भी अपवित्र बनाता है। इसकी आदि एवं उत्तर अवस्था अशुचि रूप है। इस प्रकार शारीरिक अशुचिता का चिन्तन करना ही अशुचि भावना है। इसी भावना के परिप्रेक्ष्य में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि यह शरीर अनित्य है, अशुचि रूप है और अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है।४२ इसी सम्बन्ध में ज्ञानार्णव में बताया गया है कि यह शरीर स्वभाव से ही मलिन है, निंद्य है। यह रूधिर, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र आदि सात अशुचिमय धातुओं से बना हुआ है।४३ इसके नौ द्वारों अर्थात् दो नेत्र, दो कान, दो नाक के नथुने, एक मुख, एक गुदा तथा एक लिंग में गंदगी रहती है। इस शरीर के पसीने आदि के प्रभाव से इत्र, तेल आदि सुगन्धित पदार्थ भी दुर्गन्ध रूप बन जाते हैं। सुस्वादिष्ट मधुर आहार भी विष्टा रूप बन जाता है। वास्तव में यह शरीर रूपी कारखाना निरन्तर गन्दगी का ही उत्पादन करता है। ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार मल्लिकुमारी (उन्नीसवें तीर्थंकर) ने शरीर की अशुचिता के माध्यम से विवाह करने के लिये आये राजकुमारों को वैराग्यवासित किया था।४४ उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को रोगों एवं व्याधियों का घर कहा १४० प्रशमरति पृ. ३२६ । १४१ वही ३३० । 'इसं सरीरं अविच्चं, असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ।। १३ ।।' 'निसर्गमलिनं निन्द्यमनेकाशुचिसम्भृतम् । शुक्रादिबीजसम्भूतं घृणास्पदमिदं वपुः ।। १ ।।' १४४ ज्ञाताधर्मकथा आठवाँ अध्ययन । -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २६ । १४३ -ज्ञानार्णव सर्ग २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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