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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
३. संसार भावना ___ 'सम्' उपसर्ग और 'सृ+धन' = सं तथा 'सा+अ' = सार से 'संसार' शब्द बनता है।
__ 'संसरणशीलः संसार' संसरना-सरकना-चलना - एक जगह से दूसरी जगह जाना ही जिसका स्वभाव है, वह संसार है। जाना, आना, उपजना और मरना यह कर्म सहित जीव का स्वभाव है; यह स्वभाव चार गति, चौबीस दण्डक अथवा चौरासी लाख जीवयोनि अथवा परिभ्रमण क्षेत्र रूप चौदह राजू लोक संसार कहलाता है। प्रत्येक जीव अनादिकाल के कर्मों के योग से परिभ्रमण कर रहा है। लोक के नीचे हिस्से तक, पूर्व से लेकर पश्चिमी किनारे तक तथा दक्षिण से लगाकर उत्तरी भाग तक एक राई के दाने बराबर भी ऐसा कोई स्थान नहीं बचा है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण के दुःख का अनुभव न किया हो। प्रत्येक स्थान पर, आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक बार नहीं किन्तु अनन्त-अनन्त बार यह जीव जन्मा और मरा है। जैसा वैराग्यशतक में कहा है कि एक बाल के अग्र भाग का टुकड़ा रखने योग्य भी कोई ऐसा स्थान नहीं बचा है, जहाँ जीव ने अनेकों बार सुख-दुःख की परम्परा का अनुभव न किया हो। जैसे जन्म-मरण रहित कोई क्षेत्र खाली नही रहा है, वैसे ही कोई जाति, कुल, गौत्र, योनि या नाम भी ऐसा नहीं बचा, जिसमें जीव ने अनन्त बार जन्म-मरण न किया हो। अब आगे वैराग्यशतक में इस प्रकार चर्चा की है - लोक में अनन्तानन्त जीव हैं और प्रत्येक जीव के साथ प्रत्येक जीव ने माँ-बाप, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, सास-श्वसुर, काका-काकी, मामा-मामी, बुआ, भोजाई आदि के रूप में अनन्तानन्त बार सम्बन्ध किया। एक ओर से नये-नये सम्बन्ध जुड़ गये और दूसरी ओर से पुराने सम्बन्ध बिछुड़ गये। इस प्रकार इस परिभ्रमणशील संसार में जीव ने अनन्त कालचक्र, अनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और अनन्त पुद्गलपरावर्तन बिता दिये हैं।
६६ 'तं किंपि नत्थि ठाणं, लोए वालग्ग कोडिमित्तं पि ।
जत्थ न जीवा बहुसो, सुहदुक्खपरं परं पत्ता ।।' १०० 'न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं ।
न जाया न मुआ जत्थ, सब्बे जीवा अणंतसो ।।'
-वैराग्यशतक २४ ।
-वैराग्यशतक २३ ।
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