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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २५१ वह सीमित है और तृष्णा अनन्त (असीम) है। अतः सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती। ज्ञानार्णव में भी बताया है कि जैसे जैसे इच्छानुसार संकल्पित भोगों की प्राप्ति होती है, वैसे वैसे ही उनकी तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती हुई समस्त लोकपर्यन्त विस्तृत हो जाती है। 'न जातुकाय-कामना युपभोगेन शाप्यति। द्दविष्य कृष्णावत्र्येय भूय एव अभिवर्धते ।। -मनुस्मृति। वस्तुतः तृष्णा के कारण संग्रहवृत्ति का उदय होता है। यह संग्रहवृत्ति ममत्व बुद्धि के रूप में बदल जाती है और यह ममत्व बुद्धि या मेरेपन का भाव परिग्रह का मूल है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार ममत्व बुद्धि, आसक्ति या मूर्छा ही वास्तविक परिग्रह है। परिग्रह का तात्पर्य संग्रह की प्रवृत्ति है। व्यक्ति धन सम्पदा या उपभोग के अधिकाधिक साधनों को अपने अधिकार में रखना चाहता है। अतः संग्रहवृत्ति के परिणामस्वरूप एक ओर धन और सम्पत्ति का विपुल अम्बार खड़ा होता है और दूसरी ओर उसका अभाव होता है। एक ओर सम्पत्ति के पहाड़ और दूसरी ओर अभाव के गड्ढे एक असन्तुलन को जन्म देते हैं। समाज में धनी और निर्धन का भेद खड़ा हो जाता है और इस वर्ग भेद के परिणामस्वरूप समाज में संघर्ष का जन्म होता है। समाज में आज जो वर्ग-संघर्ष देखा जाता है, उसके मूल में कहीं न कहीं कुछ मनुष्यों की संग्रहवृत्ति ही प्रमुख है। एक व्यक्ति के पास सुख सुविधा के अनेक साधन और दूसरी ओर एक व्यक्ति को अपनी जैविक आवश्यकता की पूर्ति के अभाव में मृत्यु के अभिमुख होने की स्थिति सामाजिक सन्तुलन को भंग कर देती है। उसके 'सुवण्णरूपस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ।।४८।।'-उत्तराध्ययनसूत्र ६ । ४८ 'अपि संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणां, तृष्णा विश्वं विसर्पति ।। ३० ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग २० । 'ण सो परिग्रहो वुत्तो, णायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इह वुत्तं महेसिणा ।। २१ ।।' -दशवैकालिकसूत्र ६ । ५० 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २३५-३६ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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