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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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की असीम ऊचाईंयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे। सम्पत्ति का विसर्जन होगा, तो गरीबी अपने आप दूर हो जायेगी ।४५ परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त हो सकता है जब तक संग्रहवृत्ति समाप्त नहीं होती है, तब तक आर्थिक समानता नहीं आ सकती । साथ ही संग्रहवृत्ति के कारण व्यक्ति समत्व की साधना में भी जुड़ नहीं पाता है, क्योंकि आज के मानव को पेट से अधिक पेटी की चिन्ता है । संग्रहवृत्ति के कारण मनुष्य में असन्तोष बना रहता है और असन्तोष की उपस्थिति में समत्व की साधना सम्भव नहीं है । परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में समत्व का सृजन कर सकता है। आर्थिक विषमता का निराकरण करने में अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना पर्याप्त रूप से सहायक हो सकती है। हमें एक ओर व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारित करनी होगी, तो दूसरी ओर अपनी तृष्णा अथवा संग्रहवृत्ति का त्याग करना होगा । तृष्णा या संग्रहवृत्ति को नियन्त्रित करना ही समत्वयोग की साधना है
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आधुनिक भौतिकवादी संस्कृति यह मानती है कि अर्थ ही हमारी सुख शान्ति का आधार है । वही दुःख विमुक्ति का अमोघ उपाय है । किन्तु धन के संग्रह से दुःख समाप्त नहीं होते हैं, अपितु वृद्धिगत ही होते हैं । तृष्णा या संग्रहवृत्ति जितनी अधिक होगी, उतनी ही अशान्ति बढ़ेगी, तनाव बढ़ेंगे। अतः जैनदर्शन में गृहस्थ जीवन के लिये परिग्रह के सीमांकन का जो विधान किया गया है, वह आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन है । परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में समत्व का सर्जन कर सकता है । साम्यवाद सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन नहीं कर सकता। मनुष्य में स्वतः ही त्यागवृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से सम्पत्ति-विसर्जन की दिशा में आगे बढ़े, तब ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में सच्चे समत्व का सृजन हो सकता है। भारतीय परम्परा और विशेषकर जैन परम्परा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है, वरन् उसके समवितरण पर भी जोर देती है ।
४५ 'जैन प्रकाश' ८ अप्रेल, १६६६ पृ. ११ ।
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