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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना १७६ स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है। साधक के सामने उनका महान् आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है। उस समय साधक यही चिन्तन करता है कि मेरी आत्मा और तीर्थंकरों या वीतराग परमात्मा की आत्मा में कोई अन्तर नहीं है, वे समान ही हैं। यदि मैं पुरुषार्थ करूं, तो तीर्थंकर के समान बन सकता हूँ। मुझे भी ऐसा प्रयत्न करना चाहिये। जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता है कि केवल तीर्थंकरों की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति तब तक नहीं होती, जब तक मनुष्य स्वयं उसके लिये प्रयास न करे। ___ जहाज का कार्य गति करना है, उसी प्रकार साधना की दिशा में आगे बढ़ाने का कार्य तीर्थंकरों का है। लेकिन केवल नाम स्मरण या भक्ति करने से साधक का निर्वाण नहीं हो सकता। उसके लिये सम्यक् प्रयत्न की आवश्यकता है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी विष्णुपुराण एवं बाइबिल के आधार पर इस कथन की पुष्टि की है। महावीर ने कहा है कि मेरा नाम स्मरण करने की अपेक्षा मेरी आज्ञा का पालन करके जो उसे आचरण में उतारता है, वही यथार्थतः मेरी उपासना करता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि राग-द्वेष के सर्व विकल्पों का परिहार करके भक्ति के द्वारा आत्मतत्त्व को मोक्ष-पथ में योजित करना ही वास्तविक भक्तियोग है। ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकर इसी भक्ति के द्वारा परम पद को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार भक्ति या स्तवन मूलतः आत्मबोध है। जैनदर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं : 'अज-कुल-गत-केशरी लहेरे निज पद सिंह निहार। तिम प्रभु भक्ति भवि लहेरे आतम शक्ति संभार ।।' आवश्यकचूर्णि (उद्धृत श्रमणसूत्र पृ. ८०) । ८७ विष्णुपुराण, बाइबिल जीन २/६-११ ('भगवद्गीता' -डॉ. राधाकृष्णन पृ. ७१ से उद्धृत) । ए आवश्यकवृत्ति पृ. ६६१-६२ । -उद्धृत 'अनुत्तरापातिक दशा' भूमिका पृ. २४ । ५६ नियमसार १३४-४० । ६० 'अजितजिन स्तवन' । -देवचन्द्रजी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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