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________________ १७४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना जैन धर्म की धार्मिक क्रियाओं में छः आवश्यक मुख्यतः आत्मा को विशुद्ध करने के लिये हैं। आत्मविशुद्धि राग-द्वेष और तद्जन्य कषायों को क्षीण या समाप्त करने पर ही होती हैं। सामायिक आदि षडावश्यकों की साधना राग-द्वेष और कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिये है। अतः समत्वयोग की साधना षडावश्यकों की साधना है। आवश्यक शब्द के अनेक अर्थ हैं : १. 'अवश्यं करणाद् आवश्यकम्।' जो अवश्य किया जाय, वह आवश्यक है। २. 'अपाश्रयो वा इदं गुणनाम् प्राकृतशैल्या आवस्सयं।' प्राकृत भाषा में आधार वाचक 'आपाश्रय' शब्द भी 'आस्सयं' कहलाता है। जो गुणों की आधार भूमि हो, वह आवस्सयं = आपाश्रय है। संस्कृत में आपाश्रय का प्राकृत रूप भी आवस्सय होता है। ३. 'गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति।' जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों के अधीन करता है, उसे भी आवश्यक कहते हैं। आ+वश्य = आवश्यक। ४. 'गुणशुन्यमात्मानं गुणैराव समतीति आवासकम् ।' जो आत्मा को ज्ञानादि गुणों से आवासित करे, वही आवासकं है। प्राकृत में आवासकं भी आवस्सयं बन जाता है। ५. 'गुणैर्वा आवासकं = अनुरज्जकं वस्त्र धूपादिवत्।' आवस्सय का एक संस्कृत रूप आवासक भी होता है। उसका अर्थ अनुरंजन करना है। जो आत्मा को ज्ञानादि गुणों से अनुरंजित करे, वह आवासक है। ६. 'गुणैर्वा आत्मानं आवासयंति = आच्छादयति इति आवासकम।' 'वस्' धातु का अर्थ आच्छादन करना भी होता है। अतः जो ज्ञानादि गुणों के द्वारा आत्मा को आवासित = आच्छादित करे, वह आवासक है। जब आत्मा ज्ञानादि गुणों से आच्छादित रहेगी, तो दुर्गुण-रूप धूल आत्मा पर नहीं पड़ेगी। संस्कृत के आवासक का प्राकृत रूप आवस्सय बनता है। अनुयोगद्वारसूत्र के अनुसार षडावश्यक गृहस्थ और श्रमण ७३ 'समणेण सावएण य अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा । अन्तो अहो-निसिस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ।। ८७३ ।।' -विशेषावश्यकभाष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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