________________
१३६
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, वह संसार है। उनको ही जब वह अपने वशीभूत कर लेती है, तब उसे मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार साधक और साध्य दोनों ही आत्मा हैं। दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि आत्मा जब तक विषयों और कषायों के वशीभत रहती है, तब तक वह साधक है और जब उन पर विजय पा लेती है, तब वही साध्य बन जाती है।
जैन धर्म में साध्य और साधक दोनों में अन्तर इस बात को लेकर है कि आत्मा की अपूर्णता की अवस्था ही साधक अवस्था है और आत्मा की पूर्णता की अवस्था ही साध्य है। साधक उसे बाह्य रूप से प्राप्त नहीं कर सकता; उसके भीतर में ही नवनीत रहा हुआ है और उसको क्षमता या समत्व से प्राप्त करने की आवश्यकता है। जैसे बीज वृक्ष के रूप में प्रकट होता है, वैसे ही आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते हैं। उपाध्याय अमरमुनि कहते हैं कि जैन साधना 'स्व' में स्व को उपलब्ध करना, निज में जिनत्व की शोध करना और आत्मा में पूर्ण रूप से रमण करना है। द्रव्यार्थिकदृष्टि से साध्य और साधक दोनों एक ही हैं; यद्यपि पर्यायार्थिकदृष्टि या व्यवहारनय से उनमें भेद है। आत्मा की स्वभाव दशा साध्य है और उसकी विभाव पर्याय ही साधक है। विभाव से स्वभाव की ओर गति ही साधना है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप यह साधना पथ है और जब ये सम्यक्चतुष्टय अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तशक्ति को उपलब्ध कर लेते हैं, तब वही अवस्था साध्य बन जाती है। इस प्रकार जो साधक चेतना का स्वरूप है, वही सम्यक् बनकर साधना पथ बन जाता है और उसी का पूर्ण रूप साध्य होता है। साधना पथ और साध्य दोनों ही आत्मा की अवस्थाएँ हैं। आत्मा की सम्यक् अवस्था साधना पथ है और पूर्ण अवस्था साध्य है।
इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी साधनामार्ग भी आत्मा
अध्यात्मतत्त्वालोक ४, ६ । सामायिकसूत्र ('जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४३२ -डॉ. सागरमल जैन से उद्धृत) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org