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________________ ७८ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना जैनधर्म में प्रत्येक जाति एवं वर्ग के गृहस्थ के लिए साधना में प्रविष्टि का मार्ग खुला है। साधक जीवन साधना के प्रथम चरण में देव, गुरू और धर्म के स्वरूप को स्वीकार करता है। वह मानता है कि “अर्हत् मेरे देव हैं; निर्ग्रन्थ श्रमण मेरे गुरू हैं और वीतराग प्रणीत धर्म मेरा धर्म है।" वस्तुतः साधना का लक्ष्य वीतरागता या समत्व की उपलब्धि है। अतः समत्व से युक्त वीतराग परमात्मा की साधना के आदर्श (देव) हो सकते हैं। समत्व की साधना में निरत साधक ही गुरू पद के अधिकारी हैं और समत्व या समभाव की साधना ही धर्म है। देव, गुरू एवं धर्म के प्रति सम्यक् आस्था से वह साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है। यह पाक्षिक श्रावक का लक्षण है। उसके पश्चात वह अपने जीवन में पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों के पालन का प्रयत्न करता है। यह नैष्ठिक साधक की अवस्था है। इसमें वह श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत स्वीकार करता है। जीवन के अन्त में सल्लेखना या समाधिमरण को स्वीकार करने वाला साधक श्रावक है। सागारधर्मामृत के अनुसार पक्ष, चर्या और साधकता - ये तीन प्रवृतियाँ श्रावक की कही गई हैं। पक्ष का धारक तो पाक्षिक श्रावक कहलाता है। चर्या का धारक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और साधकता का धारक साधक श्रावक कहलाता है। पाक्षिक - मार्ग में त्रस हिंसा के त्यागी श्रावक को 'पक्ष' कहा गया है। धर्म, देवता, मन्त्र, औषधि, आहार और अन्य भोग के लिए वध नहीं करूं, ऐसा पक्ष जिसका होता है, वह पाक्षिक है। वह असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों से भी विरक्त रहता है। नैष्ठिक - जब तक संयम ग्रहण नहीं करता है तब तक ग्यारहवीं प्रतिमा तक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। साधक - जो मृत्यु से पूर्व समभाव या समत्व में एकाग्र बन जाता है, और समाधिपूर्वक प्राण छोड़ता है; वह साधक कहलाता है। १३ आवश्यकसूत्र सम्यक्त्वपाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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