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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
का कार्य वस्तुतः आत्मा को अपने स्व-स्वरूप अर्थात् समत्व में स्थापित करना है।
२.३.१ सम्यक्चारित्र की साधना - समत्वयोग की आधारभूमि
जैन दृष्टि से साधनामय जीवन का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से होता है और पूर्णता पूर्ण चारित्र्य की शैलेषी अवस्था में होती है। साधनात्मक जीवन के दो अंग सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की दृष्टि से गृहस्थ और मुनि जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं है। यदि गृहस्थ और मुनि के साधनात्मक जीवन के सम्बन्ध में कोई अन्तर है, तो वह चारित्र के परिपालन का ही है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की साधना तो दोनों को समान रूप से ही करनी होती है, किन्तु अपनी वैयक्तिक क्षमता की भिन्नता के आधार पर सम्यक्चारित्र के परिपालन में अन्तर होता है। जैन साधना में धर्म के दो रूप माने गये हैं :
१. श्रुतधर्म और २. चारित्रधर्म।७० गृहस्थ उपासक एवं मुनि दोनों के लिए जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव-बन्ध, संवर-निर्जरा और मोक्ष - इन नव तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। स्वाध्याय एवं तत्त्वचर्चा इसके प्रमुख अंग हैं। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया हैं कि जो मुनि जीव
और अजीव के स्वरूप को नहीं जानता, वह संयम का परिपालन कैसे करेगा। इसी प्रकार मूल आगमों में 'जीवाजीव का ज्ञाता', यह श्रावक का विशेषण है।२ जयन्ती जैसी श्राविका भगवान
६६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २५७ ।
- डॉ. सागरमल जैन । स्थानांगसूत्र २/१। 'जो जीवे वि न याणति, अजीवे वि न याणति । जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीइ संजमं ।।३।।
__-दशवैकालिकसूत्र ४ । उपासकदशा । -देखें 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २५८ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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