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________________ ७० जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना शब्दों में वह स्व-स्वभाव में अवस्थिति है। स्वभाव में अवस्थिति के बिना साधना की पूर्णता नहीं है। यद्यपि सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि सम्यक्चारित्र के लिए सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान आवश्यक है। किन्तु दूसरी ओर से देखें, तो सम्यक्चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सम्भव नहीं है। जैनदर्शन में यह माना गया है कि सम्यग्दर्शन की उपलब्धि अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय होने पर ही होती है। अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय वस्तुतः सम्यकुचारित्र की ही एक अवस्था है। अतः सम्यक्चारित्र के बिना न तो सम्यग्दर्शन होता है और न सम्यग्ज्ञान। सम्यकुचारित्र के बिना समत्वयोग की साधना भी सम्भव नहीं है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि “ज्ञान तो दिशानिर्देश करता है, साक्षात्कार तो स्वयं करना होता है। साक्षात्कार की यही प्रक्रिया आचरण या चारित्र है।" आत्मतत्त्व द्वारा जिसका साक्षात्कार किया जाना है, वह तो हमारे भीतर सदैव ही उपस्थित है, फिर भी हम उसके साक्षात्कार या अनुभूति से वंचित रहते हैं; क्योंकि हमारी चेतना कषायों से कलुषित बनी हुई है। जिस प्रकार मलिन, गंदले एवं अस्थिर जल में कुछ भी प्रतिबिम्बित नहीं होता, उसी प्रकार वासनाओं, कषायों और राग-द्वेष की प्रवृत्तियों से मलिन एवं इच्छाओं और आकांक्षाओं से अस्थिर बनी हुई चेतना में परमार्थ (आत्मतत्त्व) प्रतिबिम्बित नहीं होता। साधना या आचरण सत्य के लिए नहीं, वरन वासनाओं एवं राग-द्वेष की वृत्तियों से जनित इस मलिनता या अस्थिरता को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। जब वासनाओं की मलिनता समाप्त होती है और राग-द्वेष के प्रहाण से चित्त स्थिर हो जाता है, तब सत्य प्रतिबिम्बित हो जाता है और साधक को परम शान्ति, निर्वाण या ब्रह्मभाव का लाभ हो जाता है। हम वे हो जाते हैं, जो तत्त्वतः हम हैं। वस्तुतः आत्मा या चित्त की जो अशुद्धता या मलिनता है, वह बाह्य कारणों से है। जिस प्रकार पानी अग्नि के संयोग से अपनी शीतलता के स्वभाव को छोड़कर उष्ण हो जाता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी बाह्य पदार्थों से उत्पन्न आसक्ति या रागादि भाव के कारण अशुद्ध ६५ 'जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ८५ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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