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________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना पर - केन्द्रित होता है । अतः समत्वयोग की साधना में जो ज्ञान सहायक है, वह तो केवल आध्यात्मिक ज्ञान है । आध्यात्मिक ज्ञान आत्मसाक्षात्कार की अवस्था है । इस स्थिति में चेतना निर्विकल्प दशा को प्राप्त होती है। डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि यह ( आध्यात्मिक ज्ञान) निर्विचार या विचार शून्यता की अवस्था है । इस स्तर पर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाता है । यहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय सभी आत्मा ही होती है। ज्ञान की यह निर्विचार, निर्विकल्प और निराश्रित अवस्था ही ज्ञानात्मक साधना की पूर्णता है । वही केवलज्ञान और केवलदर्शन है ।" आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो सर्व नयों से शून्य है, वही आत्मा है और उसे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन कहा जाता है ।" इस अवस्था में आत्मा पर-पदार्थों की ग्राहक नहीं होती है. उसमें आसक्त या मूर्च्छित नहीं होती है। वह 'स्व' में अवस्थित रहती है। इस आध्यात्मिक ज्ञान के सम्बन्ध में डॉ. राधाकृष्णन का कथन है कि “जब वासनाएं मर जाती हैं, तब मन में ऐसी शान्ति उत्पन्न होती है, जिससे आन्तरिक निःशब्दता पैदा होती है । इस निःशब्दता से अन्तर्दृष्टि उत्पन्न होती है और मनुष्य वह बन जाता है, जो कि वह तत्त्वतः है। वस्तुतः आध्यात्मिक ज्ञान ही एक ऐसी अवस्था है, जिसमें आत्मा की समत्व में अवस्थिति होती है I अतः समत्वयोग की साधना में जिस ज्ञान की अपेक्षा रहती है, वह आत्मिक ज्ञान ही है; किन्तु ऐसा आत्मिक ज्ञान स्व-पर या आत्म-अनात्म के विवेक के बिना सम्भव नहीं है। जैनदर्शन में आत्मज्ञान की इस विधि को ही भेदविज्ञान के रूप में बताया गया है । ६४ २.२.२ भेदविज्ञान का स्वरूप : आचार्य अमृतचन्दसूरि का कहना है कि जो भी सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञान से हुए हैं। जो कर्म से बँधे हुए हैं; वे भी भेदविज्ञान ५४ ५५ ५६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ७४ । समयसार गाथा १४४ । भगवद्गीता (रा.) पृ. ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only - डॉ. सागरमल जैन । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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