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________________ ६२ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना अतः सम्यग्ज्ञान का प्राथमिक और मूल अर्थ तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध और आत्म-अनात्म विवेक ही है।' आगे हम इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। २.२.१ सम्यग्ज्ञान (आत्म-अनात्म विवेक) : जैनदर्शन में त्रिविध साधना मार्ग का दूसरा अंग सम्यग्ज्ञान माना गया है। सम्यग्ज्ञान का सामान्य अर्थ जीवन और जगत् के यर्थाथ स्वरूप को जानना है। इसी आधार पर सम्यग्ज्ञान को तत्त्वज्ञान कहा जाता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार जीवादि नवतत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का बोध ही सम्यग्ज्ञान है।५२ यहाँ हमारा मुख्य प्रतिपाद्य यह है कि सम्यग्ज्ञान का समत्वयोग की साधना के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध है। सामान्यतः व्यक्ति के जीवन में जो दुःख और तनाव उत्पन्न होते हैं, उनका मूल कारण वस्तु के सम्यक् स्वरूप के ज्ञान का अभाव है। जब तक व्यक्ति पर-पदार्थों को अपना मानकर उनमें आसक्त बना रहता है, उनके प्रति ममत्व बुद्धि रखता है, तब तक वह दुःख और तनाव से मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य के दुःख और तनावों का मूल कारण 'पर' या 'अनात्म' में आत्म बुद्धि का आरोपण है। इसलिए साधना के क्षेत्र में आत्म-अनात्म का विवेक आवश्यक माना गया है। जैनदर्शन में इसे भेदविज्ञान के नाम से जाना जाता है। भेदविज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। व्यक्ति जब तक स्व-स्वरूप का बोध नहीं करता, तब तक वह पर-पदार्थों में आसक्त बना रहता है। यह आसक्ति ही समत्वयोग की साधना में सबसे बाधक तत्त्व है। इस आसक्ति या राग भाव को समाप्त करने के लिए आत्म-अनात्म का विवेक आवश्यक है। इस प्रकार आत्म-अनात्म का विवेक या सम्यग्ज्ञान या भेदविज्ञान समत्वयोग की साधना का एक आवश्यक उपकरण है। जब तक हमें स्व-पर या आत्म-अनात्म का सम्यक् बोध नहीं होगा, तब तक हमारी आसक्ति नहीं टूटेगी और जब तक आसक्ति नहीं टूटेगी तब तक समत्वयोग की साधना सफल नहीं होगी। ' ५२ नवतत्त्व प्रकरण - उद्धृत आत्मसाधना संग्रह पृ. १५१ । वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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