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________________ -३८७] पञ्चमः परिच्छेवः ३२७ अतिरागरसापूर्णा कान्तिः शोभैव सो यथा। वासागारासिताया ललितकुचरुचोत्सारितं गण्डभासा भग्नं कण्ठोपघूर्णत् कलरुचिरमहागानतो भत्सितं वा। अन्यासंसर्गरोधि स्वपतितनुमहाबन्धरज्जूयिताक्षी. प्रद्योतैः केशबन्धे निहितमिहे तमो भारतेशो लुलोके ॥३८६।। कान्तिरेव च विस्तारगता दीप्तियथा मता। वाताञ्चत्पुष्पमूले 'बहलकिसलयच्छादिते कायकान्त्या श्रीवल्लीमण्डपे सा स्वपतिभुजबलोत्सारितारातिमालाम् । ध्वान्तालों दर्शयन्ती चरति धनकुचोत्सारयन्ती कृशाङ्गी गुञ्जन्मजीरनादभ्रमरपिकरवैः कायजोद्रेकयन्ती ।।३८७।। अपोत्पन्नभयत्यागः प्रागल्भ्यं भणितं यथा । कान्ति अत्यन्त राग और रससे परिपूर्ण शोभाको ही कान्ति कहते हैं । उदाहरण केलिभवनमें स्थित नायिकाके सुन्दर कुचको कान्तिसे खदेड़े हुए, उसके कपोलके तेजसे भागे हुए, कण्ठके पास नृत्य करते हुए सुन्दरतम महागानसे डराये हुए, अन्य रमणियोंसे अपने पति के संसर्गको रोकने में रस्सीके समान प्रतीत होनेवाले, नयनोंके प्रकाशसे केशपाशमें रखनेके समान अन्धकारको श्रीभरतने देखा॥३८६॥ दीप्ति अत्यन्त विस्तृत हुई कान्तिको ही दीप्ति कहते हैं । उदाहरण ___ शरीरको कान्तिरूपी बहुत किसलयोंसे आच्छन्न पवनसे हिलते हुए पुष्प और मूलवाले लता-मण्डपमें अपने प्रियतमको भुजाके बलसे हटाये हुए शत्र समूह स्वरूप अन्धकार श्रेणीको दिखाती हुई तथा सुदृढ स्तनोंसे दूर भगाती हुई, शब्द करते हुए मंजीरके शब्दके समान भ्रमर और कोयलोंके शब्दोंसे शरीर में उत्पन्न सौन्दर्यको बढ़ाती हुई वह कृशांगी घूमने लगी ॥३८७॥ प्रागल्भ्य लज्जासे उत्पन्न भयके त्यागको प्रगल्भता कहते हैं। १. -मिव-क-ख । २. माले-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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