SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -३८२] पञ्चमः परिच्छेदः ३२५ सप्तालंकृतयः शोभा कान्तिदीप्तिप्रगल्भताः । 'माधुर्यं धैर्यमौदार्यमित्येताः परिभाषिताः ॥३७८॥ लीलाविलासललिते किलिकिंचितविभ्रमौ च कुट्टिमितम् । मोट्टायितबिब्बोकौ विच्छित्तिविहृतमाविविच्यन्ते ॥३७९॥ सत्त्वं हि मनसो वृत्तिविशेषो विकृतिच्युतिः । भावो हि भाव्यलंकारकृदादिविकृतियथा ॥३८०॥ बालक्रीडास्वबद्धार्दै तिरलसदगाबद्धधम्मिलभारा श्रोत्रे संभोगवार्तास्वपि नयति शनैराश्रितालोजनेभ्यः । पुंसामकं विशङ्कं तरलमृगदृगारोहति प्राग्यथा नो साम्युद्भिन्नस्तनोद्यन्न वमदनकलानम्यमाना कुमारी ॥३८१।। भावो मानससंभूतः शृङ्गारो विविधास्त्रियाम् । दृशां ध्रुवां विकारो यः स हावः स्मरजो यथा ॥३८२।। शोभा, कान्ति, दीप्ति, प्रगल्भता, माधुर्य, धैर्य और औदार्य ये सात नारियोंके शोभावर्द्धक सात्त्विकभाव हैं ॥३७८॥ लोला, विलास, ललित, किलकिंचित, विभ्रम, कुट्टमित, मोट्टायित, विब्बोक, विहृत, सत्त्वज अलंकार हैं ॥३७९।। सत्व और भावका स्पष्टीकरण ___ मनको वृत्तिको सत्त्व और विशेषको विकृतिच्युति तथा भविष्य में शोभा बढ़ानेवाली प्रभृति विकृतिको भाव कहते हैं ॥३८०॥ बालकों के खेलोंमें आदर भावनावाली, अलसायी आँखोंसे युक्त, जूड़ाको ठीक तरहसे सजानेवाली, धीरेसे आश्रित सखियोंके द्वारा की जानेवालो संभोगकी बातोंको सुननेवाली, कुछ विकसित पयोधरावाली, उदीयमान नूतन कामकलाको ओर झुकाववाली चंचल-नयना कुमारी बाल्यकालके समान पुरुषोंकी गोदमें शंकारहित आरोहण नहीं करती है ।।३८१॥ हाव-भाव मन से उत्पन्न स्त्रियोंके विविध शृंगारको भाव और कामसे उत्पन्न आँख या भौहोंके विकारको हाव कहते हैं ॥३८२॥ १. माधुर्यधैर्य....ख । २. कुट्टमितम्-ख । ३. विकृतिच्युतः-ख । ४. धृतिरलस-ख । ५. नवमसदनकला-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy